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________________ जैनहितैषी ४१० ...-~~~ ~~~~~~~~ होते; वे विद्वान् आचार्य ही थे । इस कारण भी उनका उल्लेख जहे तहाँ नहीं मिलता। तीसरे पद्मनन्दि और विनयसेन · गुरुपरम्परामें नहीं है, पट्टपरम्परामें हैं । वीरसेनके शिष्य जिनसेन, जिनसेनवे गुणभद्र, गुणभद्रके लोकसेन यह तो शिष्यपरम्परा है और वीरसेनके पट्टपर पद्मनन्दि, फिर जिनसेन, विनयसेन और फिर गुणभद्र यह पट्टपरम्परा है । सो उल्लेख करनेवालोंने गुरुपरम्पराका ही किया है। पद्धति भी यही है। और यदि किसीने उल्लेख नहीं भी किया, तो इससे क्या ? जब एक ९ वीं शताब्दिका ग्रन्थकर्ता अपने ऐतिहासिक ग्रन्थमें दोनोंका विश्वस्त परिचय दे रहा है, तब उसमें आप सन्देह क्यों करते हैं? क्या उक्त ग्रन्थको आप अपनी पट्टावलियोंसे कम प्रामाणिक समझते हैं ? खेद है कि आपने दो तीन बार उल्टा सीधा बहुत कुछ लिखनेका. कष्ट उठाया. पर यह एक बार भी न लिखा कि ८ पहले जो दर्शनसारकी गाथा दी गई है, यदि -3 यह किया जाय कि श्रीपद्मनन्दिके पश्चात् वीरसेनके रि." गेष्य जिनसेन संघके स्वामी हुए, अर्थात् पहले पद्मनन्दि, फिर जिनसेन हुए तो यह भी हो सकता है और तब इससे श्रुतावतारकी परम्परा भी मिल जाती है । हम यह माननेके लिए भी तैयार हैं; परन्तु तब भी पद्मनन्दि-सेनसंघकी आचार्यपरम्परासे अलग नहीं हो सकते । - ९ पद्मनन्दि और विनयसेन जिनसेनादिके समकालीन विद्वान् थे, पर पट्टावलीके आचार्य नहीं थे इसके लिए भी आपने कोई प्रमाण नहीं दिया। पर हमारे पास एक प्रमाण तो यह है कि कुमारसेन . न एकालि.बात क्यों है ? ग्चा दी मान्य क्या है : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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