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जैनहितैषी -
भी सिद्धान्तशास्त्रोंके टीकाकार थे, अतएव वे उनके पदके सर्व योग्य कहे जा सकते हैं । प्रभाचन्द्र ने अपनेको अकलंकदेवका शिष्य बतलाया है और अकलंकदेव वीरसेन जिनसेन आदि सर्व स्थान अमोघवर्षकी राजधानी मान्यखेट या उसके आसपास र हैं अतएव प्रभाचन्द्रके गुरु पद्मनन्दि भी उनके समीपी होंगे और इ कारण भी उनका वीरसेनके बाद आचार्य होना विशेष संभव जा पड़ता है ।
६ इंद्रनन्दिकृत श्रुतावतार में लिखा है चित्रकूटपुरनिवार एलाचार्य नामके विद्वान् सिद्धान्त शास्त्रों के ज्ञाता हुए और उन पास वीरसेन स्वामी ( जिनसेनके गुरु ) ने अध्ययन करके धवला टीका ग्रन्थ लिखे । इस पर से मैंने अपने पिछले लेखों में यह कल्पन की थी कि शायद इन एलाचार्यका ही दूसरा नाम पद्मनन्दि हो, और वीरसेन स्वामीके बाद वे ही उनके पद पर आचार्य बना दिये गये हों तो संभव हो सकता है। इस पर सेठ पद्मराजजी बेतरह बिगड़े हैं और अपने पास इतिहासकी पाठशालाका अभाव बतलाकर उन्होंने मुझे उसमें पढ़ानेसे इंकार कर दिया है ! पर जान १७ है आप मेरे अभिप्रायको समझे नहीं ! कठिनाई तो यही है कि आपका बढ़प्पन और अभिमान आपको कुछ समझ सकनेकी चेष्टा ही नहीं करने देता है । अस्तु । मैं अपने 'कुन्दकुन्दाचार्य ' नामक विस्तृत लेखमें बतला चुका हूँ कि पट्टावलीमें जो एलाचार्य, गृध्रपिच्छ, वक्रग्रीव नाम कुन्दकुन्दके हैं उनके लिए कोई प्रमाण नहीं है; वे बिलकुल कल्पित हैं । सेठजीको उस लेखकी युक्तियों पर विचार
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