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________________ पद्मनन्दि और विनयसेन । ४१५ न्य हैं जो अकलंकदेवके स्वर्गवासके पहले पहलेके हैं । इससे भी गराजका कथन ठीक मालूम होता है। पट्टावलियोंको छोड़कर और श्रुतावतारकथाको छोड़कर और कोई प्रमाण ऐसा नहीं मिला जो अर्हद्वलि आचार्यके समय नन्दिसेन आदि संघोंका भेद ना बतलाता हो । बल्कि ऐसे ही प्रमाण मिल रहे हैं जिससे कलंकदेवके समयमें ही इन संघोंका प्रारंभ जान पड़ता है । आश्चर्य नहीं जो अकलंकदेवमे देवसंघ. वीरसेनसे सेनसंघ और गाणिक्यनन्दिसे नन्दिमंत्र प्रारंभ हुआ है । इस विषयमें अभी हम नेश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कह सकते हैं। समय आ रहा है जब हम म विषयमें एक विस्तृत लेख प्रकाशित करनेको समर्थ हो सकेंगे। स समय हम केवल यही सिद्ध कर रहे हैं कि वीरसेनके बाद मनन्दिका आचार्य होना असंभव नहीं है। ५ वीरसेन म्वामीके समयमें एक पद्मनन्दि नामक आचार्यका पता भी लगता है । आचार्य प्रभाचन्द्रने उन्हें अपना गुरु बतलाया है:श्रीपद्मनन्दिसैद्धान्तशिष्योऽनेकगुणालयः । प्रभाचन्द्रश्चिरं जीयादत्निनन्दिपदे रतः ॥ न्यायकुमुदचन्द्रोदयके कर्ता इन प्रभाचन्द्रका म्मरण जिनसेन म्वामीने आदिपुराणमें किया है और प्रभाचन्द्र. वीरसेनके समकालीन विद्वान् थे । अतएव उसी समय प्रभाचन्द्रके गुरु पद्मनन्दिका होना और उनका वीरसेनके पद पर आचार्य बनना सर्वथा संभव है। प्रभाचन्द्रने उन्हें 'सैद्धान्ती' विशेषण दिया है और वीरसेनस्वामी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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