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________________ पद्मनन्दि और विनय सेन । ४१३ भाचार्य नहीं हो सकते । परन्तु यह ठीक नहीं । क्योंकि एक नन्दि, सेन, देव, सिंह इन चारों संघों में ऐसा द्वेषभाव या बड़ा भारी भेद न था कि एक संघका दीक्षित विद्वान् दूसरे संघका आचार्य न हो सके । आवश्यकता होने पर दूसरे संघ के मुनिको भी आचार्य बनाते होंगे। पद्मनन्दिका भी ऐसा ही होना संभव है । सेनसंघ के आचार्य होने पर शायद उनका राज, वीर, भद्र, सेन, पदान्तवाला | नाम भी रक्खा गया हो; परन्तु पिछला नाम विशेष प्रसिद्ध होनेके कारण उनका उसी नामसे उल्लेख किया गया हो । दूसरे यह जो नियम है कि सेनसंघ के नामान्तमें भद्र, सेन, वीर, राज नन्दिसंघमें नन्दि, चन्द्र, कीर्ति, भूषण सिंहमें सिंह, कुंभ, आस्रव, सागर; "देवमें देव, दत्त, नाग और तुंग होते हैं सो यह ब्रह्माका वाक्य नहीं है कि सर्वत्र इसकी पालना होती ही रही हो। इसके अपवाद भी दिखलाई देते हैं । गुणभद्र स्वामीने उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें जिनसेनके साथ अपने दशरथ नामक गुरुका भी नामोल्लेख किया है( ' दशरथगुरुरासीत्तस्य धीमान्सधर्मा' इत्यादि ) । यह नाम ऐसा है कि इसमें चारों संघोमेंसे किसीका भी अन्त्यनामपद नहीं है; परन्तु होंगे ये अवश्य ही किसी संघके । इसी तरह विक्रान्तकौरवीय नाटककी जो प्रशस्ति भास्करमें प्रकाशित हो चुकी है उसमें समन्तभद्रका शिष्य शिवकोटि और शिवायनको बतलाया है और उन्हींकी परम्परामें वीरसेन जिनसेन आदिको बतलाया है; परन्तु शिवकोटि और शिवायन नाममें भी किसी संघका चिन्ह नहीं है । ' इन्सक्रिप्रशन्स एट श्रवणवेलगोला ' के ४७ वें शिलालेखमें वीरनन्दिके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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