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________________ ४१० जैनहितैषी - लिए तैयार ही नहीं हूँ । नहीं, यदि कोई विद्वान् मेरी दलीलों काट दे तो मैं बड़ी खुशीसे माननेको तैयार हूँ । मैं कोई सेठ नह कोई इतिहासका विद्वान् नहीं, मेरे हाथमें कोई बड़ा भारी पुस्तकभंडा भी नहीं; केवल एक विद्यार्थी हूँ, इस लिए मुझे इस बातका डर नह है कि लोग मेरे विषयमें क्या सोचेंगे । इस तरहका खयाल से पद्मराजजी जैसे धनियों और तिहासज्ञोंकों ही हो सकता है और शायद इसी खयालसे वे युक्तियोंकी ओर जरा भी ध्यान न देकर केवल आक्रमण करके-भलाबुरा कहके अपनी प्रतिष्ठाकी रक्षा करना चाहते हैं। ___ अपनी मानताकी पुष्टिमें और सेठजीकी मानताके विरुद्धमें मैं हितैषीक उल्लेखित अंकमें काफी प्रमाण दे चुका हूँ; परन्तु पाठकोंको यह विषय स्पष्ट रीतिसे समझमें आ जावे इसके लिए संक्षेपमें यहाँ भी कुछ निवेदन कर देना चाहता हूँ । जो बातें पीछेसे मालूम हुई हैं उनको भी मैं इसमें शामिल कर दूंगा। संवत् ९०९ के बने हुए दर्शनसारमें ये गाथायें लिखी हैं:सिरिवीरसेणसीसो जिणसेणो सयलसत्थविण्णाणी। सिरि पउमणंदिपच्छा चउसंघसमुद्धरणधीरो ॥ तस्स य सीसो गुणवं गुणभद्रं दिव्वणाणपरिपुण्णो । पक्खोववासमंडिय महातबो भावलिंगो य ॥ तेण पुणो विय मिच्चं णेऊण मुणिस्स विणयसेणस्स । सिद्धंतं घोसित्ता सयं गयं सग्गलोयस्स ॥ पहली गाथाका अर्थ यह है कि श्रीवीरसेनाचार्यके शिष्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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