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पद्मनन्दि और विनयसेन ।
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सेठजीकी प्रशंसासे समाजका भी कुछ आने जानेवाला न था; सिवाय इसके कि सेठोंकी प्रशंसा और प्रतिष्ठा बढानेके लिए उसने जो सभापति आदि बनानेके कई द्वार खोल रक्खे हैं उनमें एककी वृद्धि
और हो जाती । परन्तु मैंने यह सोचकर कि एक ऐतिहासिक प्रश्नका निबटारा हो जायगा इस विषयमें लिखना आवश्यक समझा और हितैषीके ९ वें भागमें उन बातोंका खुलासा कर दिया जिनके कारण मैंने १ वीरसेन, २ पद्मनन्दि, ३ जिनसेन और ४ विनयसेन इस आचार्यपरम्पराका निश्चय किया था। मैं अपने विचारशील पाठकोंसे सविनय प्रार्थना करता हूँ कि वे जैनहितैषी भाग ९ पृष्ठ ५२२ निकाल कर मेरा लेख एक बार अवश्य पढ जावें और उसके बाद भास्करकी वर्तमान संख्याका इस विषय सम्बन्धी लेख पढ़ें। इसके बाद निश्चय करें कि सेठनीने मुझ पर जो आक्रमण किया है वह कहाँ तक ठीक है। पर यहाँ मैं यह प्रार्थना किये बिना नहीं रह सकता कि विचार करते समय इस बातको आप भूल जावें कि भास्कर खूब मोटा ताजा है, बहुमूल्य है और उसके सम्पादक एक धनी हैं, पर जैनहितैषी जरासा है, आडम्बरशून्य है और उसका सम्पादक जैनसमाजका एक निर्धन अल्पबुद्धि सेवक है । मोटाई छोटाई छोड़कर आप लोग सिर्फ दोनोंकी युक्तियोंको पढ़कर ही कुछ निश्चय करें । ___ इस प्रश्नके सम्बन्धमें मैं यह निवेदन कर देना चाहता हूँ कि मैं वीरसेनके बाद पद्मनन्दि और जिनसेनके बाद विनयसेनको मानता हूँ, सो इसका मतलब यह नहीं कि मैं इससे विरुद्ध बात माननेके
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