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________________ जैनहितैषी - पद्मनन्दि और विनयसेन । (जैनसिद्धान्त भास्करके एक आक्षेपपर विचार ) भा स्करके नये अंकमें मुझ पर जो अनेक आक्षेप हैं उनमें एक आक्षेप इस विषयको लेकर किया गया है कि वीरसेन और जिनसेनकी परम्परा में पद्मनन्दि और विनयसेन नहीं हुए हैं। यह एक ऐसा प्रश्न है कि इस पर भद्रता और शिष्टता के साथ वर्षोंतक विचार किया जा सकता था; परन्तु सेठ पद्मराजजीको उनके ऐतिहासिक पण्डित्यके अभिमानने इतना असहिष्णु बना दिया है कि एक ही बारके उत्तरके प्रत्युत्तर में वे शिष्टता और भद्रताकी रक्षा न कर सके । आपे से बाहर होकर उन्होंने मेरी अनभिज्ञता आदिकी गहरी समालोचना कर डाली और इस बातको सर्वथा भुला दिया कि इतिहासका निर्णय अध्ययन और विचारसे होता है क्रोध और अभिमानसे नहीं । हुआ भी वही; मैंने सेठजीके द्वितीय तृतीय अंकके आक्षेपका जो उत्तर जैनहितैषी के भाग ९ अंक ९ में दिया था उस पर वे ज़रा भी विचार न कर सके । यदि करते और इतिहासको इतिहास समझते - तो उन्हें यह प्रत्यु - त्तर लिखनेकी आवश्यकता ही न होती - उसीमें समाधान हो जाता । मुझे यदि यह मालूम होता कि सेठजी भास्करके सम्पादक केवल इस लिए बने हैं कि लोग उन्हें बड़ा भारी विद्वान् समझें, और जहाँ तहाँ उनकी इतिहासज्ञताके गीत गाये जाने लगें, तो मैं उक्त आक्षेप पर कुछ भी नहीं लिखता; चुप रह जाता। मेरी इसमें कुछ हानि भी न थी । ४०८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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