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________________ जैनहितैषी । ४०६ उसने उस शक्तिको प्राप्त किया है । तुम आत्मनिर्भरता पर विश्वास रखो और अपना कर्तव्य भली भाँति पालन करते जाओ । वह शक्ति तुममें अवश्य आजावेगी । प्रत्येक व्यक्तिको जान लेना चाहिए कि मैं एक बड़ा भारी खजाना हूँ । खजाना ही नहीं किन्तु एक खानि हूँ जिसमें बड़े बड़े अमूल्य रत्न भरे हुए हैं। आवश्यकता केवल इतनी है कि उद्योग करके उनको निकाल लिया जावे: परंतु स्मरण रहे कि बिना हाथपैर हिलाये उनकी प्राप्ति नहीं हो सकती । मनुष्यको उचित है कि दिन दिन अपनी उन्नति करता जाय और आगे आगे बढ़ता जाय । प्रायः मनुष्य दूसरोंसे आगे बढ़नेका उद्योग किया करते हैं; परंतु यह उनकी भूल है । दूसरोंसे आगे बढ़नेकी बजाय अपनेसे आगे बढ़नेका उद्योग करना चाहिए । ऐसा करने से बराबर उन्नति होती रहेगी और तमाम बातें ठीक ठीक बढ़ती जावेंगी । संसारमें जितने मनुष्योंने उन्नति की है सबने इसी बात पर पूर्ण रूपसे ध्यान दिया है कि आए दिन पिछले दिनसे अधिक अधिक उन्नति होती जाय । ♪ जितने हम परसों थे उससे कल आगे बढ़े और जितने कल थे उससे आज आगे बढ़े और जितने आज हैं उससे कल बढ़ेंगे । यह विचार सफलताका मूल है। दूसरों के साथमें मुकाबला करना अथवा उनसे आगे बढ़नेका उद्योग करना निःसंदेह अच्छा है, परंतु इतना अच्छा नहीं है जितना अपनेको दिन दिन आगे बढ़ानेका उद्योग करना । आत्मनिर्भरता से यह बात प्राप्त होती है और इस बात से आत्मनिर्भरता प्राप्त होती है । एकका दूसरेसे घनिष्ठ संबन्ध है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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