SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शांति-वैभव । ४०१ wwwww इसके विपरीत जिस मनुष्यमें आत्मनिर्भरता होती है उसके विचार और ही भाँतिके होते हैं । वह सदा इस बातके जाननेकी धुनमें लगा रहता है कि मुझमें कौन कौनसे अवगुण हैं और मैं उन्हें कैसे दूर कर सकता हूँ । उसको इस बातका पूर्णरूपसे निश्चय होता है कि सम्पूर्ण बाह्य प्रभावोंके जीतनेकी मुझमें शक्ति है। वह जानता है कि कठिनाइयोंका उपस्थित होना कोई अनहोनी बात नहीं है । जितने जितने बड़े बड़े महात्मा हुए है सबने अनेक दुःखोंका सामना किया है, बड़ी बड़ी आपत्तियोंको झेला है। आपत्तियोंसे डरना कायरोंका काम है । आपत्तियोंका सामना करना और सहन करनाही वीरता है । वह समझता है कि असफलता स्थायी नहीं है, क्षणमात्रके लिए है । असफलतासे निराश न होना चाहिए । उद्योग किये जाओ। एक दिन सफलता अवश्य होगी। जैसे रेलगाड़ीकी यात्रामें कभी कभी रास्तेमें डाट आजाती है तो थोड़े समयके लिए अँधेरा हो जाता है, परंतु डाटके निकलते ही उजाला हो जाता है। यही हाल जीबनका है । असफलताका अँधेरा कुछ समयके लिए रहता है फिर सफलताका उजाला आजाता है। ___ वह जाति सबसे अधिक बलवती होती है जिसमें आत्मनिर्भरताका गुण होता है जिसमें वे सब बात पाई जाती हैं, जो मनुष्योंके लिये आवश्यक हैं । यदि ऐसा नहीं है तो वह जाति बलहीन है। ऐसी जाति सदा शत्रुके पंजेमें दबी रहती है और उसका नाश होनेमें तनिक भी देर नहीं लगती । शत्रु उसे शीघ्र चारों ओरसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy