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जैनहितैषी
हों; परंतु यदि यह एक गुण नहीं है तो सब गुण व्यर्थ हैं । आत्मनिर्भरताके होनेसे ये सब गुण एकत्रित होकर एक जीवनशक्ति पैदा कर देते हैं और कार्यमें सफलता होते देर नहीं. लगती । जिस मनुष्यमें आत्मनिर्भरता नहीं पाई जाती उसकी आत्मा निर्बल होती है । उसे प्रत्येक कार्यमें संदेह रहता है और जो कुछ भी वह करता है सब · हिचरमिचर' करके करता है । उसको हरएक कामके करनेमें भय मालूम होता है और रात दिन यही चिंता लगी रहती है कि कहीं श्रम निप्फल न चला जाय । वह सदा यही बाट निहारता रहता है कि कोई आकर मुझे राय दे। उसमें इतना साहस और आत्मबल नहीं होता कि स्वयं विचार करे और जो उचित और योग्य समझे उसे कर डाले । ऐसा मनुष्य अपनी कायरता और मान बडाइमें प्रत्येक असफलताका कारण दूसरोंके सिर मँड देता है । उसे सदा यही शिकायत रहती है कि लोग मेरे मूल्यको नहीं पहचानते, मेरा कुछ मान नहीं करते और मुझको तुच्छ समझते हैं। वह अपने मनमें समझता है कि समाज मेरे प्रतिकूल विचार किया करता है । अपना दोष मालूम करके उसके दूर करनेका तो उद्योग वह कभी करता नहीं; हाँ, दूसरोंको अपने द्वेषी और शत्रु सदैव जानता रहता है। ऐसे मनुष्यको शांति प्राप्त होना नितांत दुर्लभ है । उसको शांति कहाँसे प्राप्त हो ? उसको तो सदैव यही चिंता रहती है कि मेरे समान संसारमें कोई भी दुखी नहीं, न कोई इतना दरिद्र है और न किसीको इतनी असफलता हुई है।
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