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________________ ३९८ जैनहितैषी दूसरेकी जगह आप जानेसे कभी काम नहीं चलता । प्रकृति सदैव बतलाती रहती है कि मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है। चाहे वह अपनेको अपना मित्र बना ले और चाहे शत्रु बना ले, यह उसीके आधीन है। साधारण उदाहरण व्यायाम (कसरत) का लीजिए । क्या यह सम्भव है कि कोई मनुष्य अपनी जगह दूसरेको अखाडेमें भेज दे और शरीर उसका पुष्ट हो जावे ? कदापि नहीं । जब तक वह स्वयं जाकर अपने शरीरसे श्रम नहीं करेगा और व्यायामके सिद्धांतों पर अपना समय और उपयोग न लगायगा, तबतक कोई लाभ नहीं हो सकता । ऐसे ही यदि कोई रोग होजाय तो जबतक मनुष्य स्वयं ओषधिका सेवन न करे, संसारभर की ओषधियाँ उसके लिए निष्फल हैं। यह कदापि सम्भव नहीं कि अपने पेटकी पीड़ा दूसरेके चूरन खानेसे दूर होनाय । रोगसे निवृत्ति पानेके लिए स्वयं ओषधि सेवन करनेकी जरूरत है। धर्मके सम्बंधमें भी यही बात है । संसारभरके धर्मोके सिद्धांत उस समयतक कुछ भी कार्यकारी नहीं जबतक कि प्रत्येक व्यक्ति उनको अपने जीवनका आधार न बना ले और इस बातका दृढ़ विश्वास और संकल्प न कर ले कि मेरा जीवन इन्हीं पर निर्भर है-मैं इन्हींके द्वारा अपने जीवनको सुधार सकता हूँ। धर्म उस गाडीके समान नहीं है जिसमें गद्दे तकिये लगे हुए हैं और बैठनेवालेको केवल टिकटके दाम देने पड़ते हैं; शेष सब काम दूसरे लोग कर लेते हैं। धर्ममें मनुष्यको सब ही काम अपने आप करने होते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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