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________________ आवश्यकीय प्रार्थना। महाशयो ! यह बात निर्विवाद सिद्ध है इसके कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं कि संमार में वही धर्म जीवित रहसकता है और उसीकी गणना जीबित धर्मों में की जा सकती है कि जिसका प्राचीन साहित्य सुरक्षित विद्यमान हो, जिसके इतिहासादि आषग्रंथोंका यथेष्ट उद्धार होता जाता हो, जिसका शास्त्रभंडार नित्यशः बढता जा रहा हो और जिसके तक, छंद, व्याकरण ज्योतिष विज्ञान इतिहासादि साहित्यके समस्त अंगोंकी पुष्टि होती जाती हो । वह धर्म इस उन्नतिशील प्रकाशमयी २० वीं शताब्दीमें कदापि उन्नति नहिं कर सकता और उसके सिद्धांत कदापि विश्वव्यापी नहिं हो सकते जिसका कि साहित्यभंडार अंधकूपमें पड़ा हुआ हो, प्राचीन महत्त्वशाली ग्रंथ दीमकोंके आहार बन रहे हों। इसी कारण ही सब समाजें हजारों लाखों रुपये खर्च करके अपने २ साहित्यकी रक्षा वृद्धिकर रहे हैं। हमने भी इसी मार्गको उत्तम समझकर सबसे पिछड़े हुये अपने पवित्र जैनधर्मकी स्थिति कायम रखनेको इच्छासे तथा सरकारी संस्कृत युनिवर्सिटियों में जैनन्यायव्याकरणादि ग्रंथ भरती कराने वा सर्वत्र प्रचार करने के लिये एक भारतीयजैनसिद्धांतप्रकाशिनीसंस्था खोलकर प्राचीन संस्कृत ग्रंथोंके प्रकाशनार्थ तो सनातनजैनग्रंथमाला और हिंदी बंगला अंगरेजीभाषामें नये ढंगके इतिहासादि ग्रंथ वा ट्रेक्ट प्रकाश करनेकेलिये एक चुन्नीलालजैनग्रंथमाला प्रकाशित करना प्रारंभ किया था, परंतु पूरी २ द्रव्यसहायता न मिलनेके कारण कलकत्ता संस्कृतयूनिवर्सिटीमें भरती हुए जैनन्याय जैनव्याकरण ग्रंथोंका पठनक्रम ( कोर्स ) अभी तक छपाकर पूर्ण नहिं कर सके, लाचार राजवार्तिक, जैनेंद्र शाकटायनादि व्याकरण अधूरे ही रखकर छपाना बंद करना पड़ा है। परंतु अब कलकत्ता आदिके अनेक सज्जन महाशयोंकी प्रेरणा व सम्मतिसे उत्साहित होकर पचास २ रुपयोंके ६० और दश दश रुपयोंके २०० इस प्रकार पांच हजार रुपयोंके शेअर बेचकर उसी रकमसे अत्यंत शुद्धतासे मनोहर छपाई करने के लिये एक छोटासा जैनप्रेस खोलकर उसके द्वारा दोनों ग्रंथमालायें नये उत्साहसे बराबर निकालते रहनेका प्रबंध किया गया है। अतएव समस्त सज्जन विद्वजन महाशयोंसे प्रार्थना है कि नीचे लिखे नियम वांचकर आप स्वयं शेअर ( हिस्से ) खरीदें तथा अन्यान्य महाशयोंको खरीददार बनाकर शेअर भरनेका फारम (जो कि इसके साथ है ) लिखवाकर शीघ्रही हमारे पास भेजें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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