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________________ (२) संस्थाओंकी तरह इस धार्मिक संस्थाकी भी सहायता हमेशा करते रहा करें । आप लोग अन्य अन्य धर्मकार्योंमें सैंकड़ों हजारों रुपया दान करते हैं परंतु इस कार्यमें दान करनेसे जितना फल होता है वा पुण्य यशकी प्राप्ति हो सकती है अन्य किसी भी कार्यमें नहिं होती होगी। इसलिये हमने एक बहुत ही सरल उपाय निकाला है जिसके द्वारा समर्थ असमर्थ सब कोई महाशय सैंकड़ों हजारों शास्त्रोंका दान कर सकते हैं वह सरल उपाय यह है कि____ आप अपनी सामर्थ्यानुसार ५०) १००) ५००) या १०००) जितनी इच्छा हो एक रकम इस संस्थामें भेज दीजिये । हम आपके नामसे संस्थाकी बहीमें एक दान खाता लगाकर जमा करलेंगे। उस रकमसे आपके वा आपके पिता आदिका जिनका नाम देंगे उनके स्मरणार्थ नामदि सहित किसीभी एक ग्रंथकी ११०० प्रति छपावेंगे। उनमेंसे ४०० या ५०० प्रति जैनियोंमें बेचकर लागतकी रकम उठाकर उसी खातेमें जमा करके फिर कोई भी दूसरा ग्रंथ छपाना शुरू कर देंगे और शेष रही ६०० या ५०० प्रतियोंमेंसे आधी तो आपके पास दान करनेके लिये भेज देगें और आधी हम अपने जैन अजैन ग्राहकोंको विना मूल्य वितरण कर देंगे। इसीप्रकार दूसरे ग्रंथकी भी ४००-५०० प्रति बेचकर मूल लागतकी रकम हस्तगत करके उस ग्रंथकी भी शेष प्रतियोंमेंसे आधी प्रतियाँ आपको दान करनेके लिये भेज देंगे और आधी हम दान कर देंगे। इसी प्रकार हमेशह वर्षमें एक दो या तीन बार आपकी रकमसे ग्रंथ छपा २ कर विक्रय करके मूल रकम हाथमें रखकर सैंकड़ों हजारों ग्रंथोंका विना टका पैसेके दान होता रहेगा। अन्यमती विद्वानों और सर्वसाधारण भाइयोंमें जैनधर्मके ग्रंथोंका प्रचार होनेसे कितना लाभ होगा सो आप ही विचार लें और आपके ध्यानमें आ जावे तो शीघ्र ही कोई एक रकम भेजकर आज्ञा दें जो हम ग्रंथ छपाकर आपका यह शास्त्रदानका कार्य शुरू करदें। आपकी रकमका छपाई विक्री वगैरह खर्चका पाई पाईका हिसाब प्रतिवर्ष आपके पास भेज दिया जायगा और वार्षिक रिपोर्टमें भी छपा दिया जायगा। यदि यह उपाय आपकी समझमें नहिं आया हो तो फिरसे एक बार इसे बांचकर समझ लीजिये । इस विषयमें पत्रव्यवहार करनेका पता पन्नालाल बाकलीवाल व्यवस्थापक-भारतीयजैनसिद्धांतप्रकाशिनीसंस्था ठि. मंदागिन जैनमंदिर, पो० बनारस सिटी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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