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विविधप्रसंग ।
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और यह कथा सत्य पर निर्धारित जान पड़ती है; परन्तु इससे वे यह नहीं समझते कि चन्द्रगुप्तका जैनत्व सिद्ध होगया और अब इस विषयमें प्रयत्न करनेकी कोई जरूरत नहीं है । वे अपने जैनोंके संदेशमें इस विषयके खोज करनेकी-चन्द्रगुप्तके जैनत्वकी कथा कहाँतक ठीक है इसके जाँच करनेकी-बहुत बड़ी आवश्यकता प्रकट करते हैं और जैनविद्वानोंको अपनी दृष्टिसे वादविवाद करनेके लिए आह्वान करते हैं। इससे साफ मालूम हो जाता है कि भास्करके सम्पादक महाशयका विश्वास विन्सेंट स्मिथ साहबसे भी बहुत आगे बढ़ गया है । स्मिथ साहबके इतिहासमें वे अश्रान्तपरिश्रमके ऐतिहासिक प्रमाण और पर्यालोचन भी कहीं दिखलाई नहीं दिये जिनका भय दिखलाकर, सहयोगी हम पर तानें कसता है। इससे तो यही मालूम पड़ता है कि सम्पादक महाशयने विन्सेंट स्मिथ साहबके इतिहासकी बात कहींसे सुन-सुना ली होगी; उसे किसीसे अनुवाद कराके पढ़ा भी न होगा । यदि पढ़ लिया होता तो इस तरह चन्द्रगुप्तके जैनत्वकी बातको वे स्वयंसिद्ध सिद्धान्त न समझ लेते । भारतवर्षका सुप्रसिद्ध सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य यदि जैन सिद्ध हो जाय तो इसके समान प्रसन्नताकी और जैनधर्मके गौरवकी बात और क्या हो सकती है ? इसको कौन नहीं चाहता ? परन्तु केवल हमारे कहनेसे ही तो दूसरे नहीं मान सकते हैं ? जैनोंके. माननेके लिए तो इतना ही काफी है कि हमारे यहाँ इस विषयकी कथा मिलती है; पर हमारी कथा दूसरोंके लिए तो सर्वज्ञकथित नहीं हो सकती है ? दूसरे तो अन्यान्य प्रमाण भी चाहते हैं । उन
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