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जैनहितैषी
सिद्धान्तके समान जान पड़ने लगी है और इस कारण वह इसे युक्तिकी कसौटी पर कसना निरर्थक तथा पिष्टपेषण तुल्य समझता है । उसने इस चौथी किरणमें हमें उपदेश किया है कि "प्रेमीजी ! अच्छा होता यदि आप विन्सेंट स्मिथकी अभी हालकी छपी नवी आवृत्ति मँगाकर किसी बी. ए. से चन्द्रगुप्तके इतिहासका अनुवाद कराकर समझलेते। उन्होंने चालीस वर्षकी सपरिश्रम अविश्रान्त ऐतिहासिक पर्यालोचनासे अनेक ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा अपनी इतिहास पुस्तकमें यह सिद्ध कर दिखाया है कि चन्द्रगुप्त जैन थे
और अन्तमें इन्होंने मुनिवृत्ति धारण कर इस लोकको छोड़ा है।" हमने तत्काल ही उसके उपदेशको माथे पर चढ़ाया और विन्सेंट साहबके इतिहासमें मौर्य चन्द्रगुप्तके तथा जैनधर्मके सम्बन्धमें जे कुछ लिखा था उसका अनुवाद अपने मित्र बाबू दयाचन्द्रजी गोय. लीय बी. ए. से करवा मँगाया । वह इसी अंकमें अन्यत्र प्रकाशित है। इसके सिवाय विन्सेंट स्मिथने जैन समाजके लिए जो संदेश भेजा है और उसमें चन्द्रगुप्तके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है उसक अनुवाद भी अन्यत्र दिया है । पाठकोंसे प्रार्थना है कि विन्सेंट साहबके उक्त दोनों स्थलोंको विचार पूर्वक पढ़ें और फिर उनके अभिप्रायका मिलान भास्करके विचारोंके साथ करें । विन्सेंट ए. स्मिथ साहब चन्द्रगुप्तमायके जैनत्वकी संभा. वना स्वीकार करते हैं । वे कहते हैं कि जैनतत्त्वकी कथाके विरुद्धमें जो जो शंकायें थीं वे सब हल हो गई हैं; और इस कारण मुझे विश्वास होता है कि चन्द्रगुप्त जैनसाधु हो गये थे
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