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________________ .४९० जैनहितैषी नेसे यह बात और भी निश्चित हो जायगी। मंगलाचरणमें अपने गुरु मतिसागर, गुरुके गुरु श्रीपाल और गुरुभाई दयापालका में ग्रन्थकर्ताने स्मरण किया है। प्रारंभमें लिखा है कि इस ग्रन्थपर य द्यपि अनेक टीकायें हैं; परन्तु वे सर्वसाधारणके लिए अगम्य हैं, इस लिए मैं यह अतिशय सरल वृत्ति बनाता हूँ। यह वृत्ति छपकर प्रकाशित होने योग्य है । कठिनाई यह है कि यह आराके सिद्धान्तभवनमें है इसलिए सहज ही न मिलेगी और यदि मिल भी जायगी तो नियमानुसार १५ दिनमें वापिस कर देनी पड़ेगी। (१२) कुछ अप्रसिद्ध ग्रन्थ और ग्रन्थकर्ता। अनेक शिलालेखों और प्रशस्तियोंसे ऐसे अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकर्ताओंका पता लगता है जो बिलकुल अप्रसिद्ध हैं। मल्लिषेण प्रशस्तिमें आचार्य वज्रनन्दिके नवस्तोत्रका उल्लेख है: न वः स्तोत्रं तत्र प्रसजति कवीन्द्राः कथमपि प्रणामं वज्रादौ रचयत परं नन्दिनि मुनौ। नवस्तोत्रं येन व्यरचि सकलाहत्प्रवचनप्रपश्चान्तर्भावप्रवणवरसन्दर्भसुभगम् ॥ जान पड़ता है यह — नवस्तोत्र' देवागम जैसा होगा, क्योंकि उसमें समस्त अर्हत्प्रवचनके भाव मौजूद हैं। क्या ये वे ही वज्रनन्दि हैं जो पूज्यपादके शिष्य थे और जिन्हें देवसेनने द्राविडसंघका स्थापक बतलाया है ? इसी प्रशस्तिमें सुमतिदेवके सुमतिसप्तकका उल्लेख है: सुमतिदेवममुंस्तुत येन वः सुमतिसप्तकमाप्ततया कृतं परिहृतापदतत्त्वपदार्थिनां सुमतिकोटिविवर्ति भवातिहत् ॥ [शेष आगे] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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