________________
४८८
जैनहितैषी
छोड़ दें और पुत्री इसीको दे दें । ऐसा ही हुआ; राजाने मदनकीतिके साथ अपनी लड़कीका विवाह कर दिया । मदन भोगी बनकर रहने लगा। कुछ समयमें गुरु विशालकीर्तिको यह समाचार, मिला । उन्होंने अपने चार शिष्योंको इसे समझानेके लिए भेजा। शिष्योंने आकर बहुत कुछ समझाया, पर फल न हुआ । शिष्य लौट गये; उनके साथ मदनने कुछ श्लोक लिखकर रख दिये । उनका अभिप्राय यह था— ' प्रियादर्शन ही सारभूत दर्शन है;
और दर्शन किस मतलबके? इस दर्शनमें राग होने पर भी चित्त निर्वाण प्राप्त करता है । होठोंके डसनेसे चकित हुई, हाथ छुड़ानेका प्रयत्न करती हुई, कोपसे भौंहें नचाकर बोलती हुई, चारुचन्द्रवदनमें सीत्कार करती हुई मानिनीका जिसने चुम्बन किया उसने ही अमृत प्राप्त किया; मूर्ख देवताओंने सागर मंथन करनेका परिश्रम व्यर्थ ही किया ।' इत्यादि । ये श्लोक बाँचकर गुरु स्तब्ध हो रहे । मदनकीर्तिने अनेक प्रकारके भोगोंका अनुभव किया ।" __ आशाधर विक्रमसंवत् १३०० के लगभग हुए हैं और यही समय मदनकीर्तिका है। अतः चतुर्विशतिप्रबन्ध इनसे सिर्फ १०० वर्ष पीछेका बना हुआ है । विद्वानोंको इस विषयमें और भी छानबीन करना चाहिए और पता लगाना चाहिए कि इस कथामें सत्यांश कितना है । यह बात स्मरण रखनेकी है कि श्वेताम्बर होने पर भी लेखकने मदनकीर्तिके प्रबन्धमें कोई बात ऐसी नहीं लिखी है जो दिगम्बर सम्प्रदाय पर खास आक्षेप करनेवाली हो ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org