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________________ इतिहासप्रसङ्ग। ४८५ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm mmmmmmmmmmmmmmm कर्णाटकमें इसके पठनपाठनका बहुत प्रचार है । मद्रासकी ओरियण्टल लायब्रेरीमें इसकी एक सटीक प्रति मौजूद है। टीका स्वयं अर्हद्दासकी ही बनाई हुई है। उसका नाम है सुखबोधिनी । इस काव्यका अपर नाम ' काव्यरत्न ' है । इसकी प्रशस्तिमें लिखा है कि कविने आशाधरके उपदेशसे जैनधर्म ग्रहण किया थाः-- मिथ्यात्वकर्मपटलैश्चिरमावृते मे . युग्मे हशोः कुपथयाननिदानभूते । आशाधरोक्तिविलसञ्जनसंप्रयोगरच्छीकृतेद्य पृथुसत्पथमाश्रितोस्मि ॥ इससे अर्हद्दासका समय भी निश्चित हो जाता है। (९) महाकवी विरनन्दिका समय । चन्द्रप्रभकाव्यके कर्ता वीरनन्दिका समय अभतिक निश्चित नहीं है; पर वे वादिराजंसारिके पहलेके अवश्य हैं । क्योंकि उन्होंने पार्श्वनाथचरितमें उनका उल्लेख किया है: चन्द्रप्रभाभिसंबद्धारसपुष्टा मनःप्रियम् । कुमुद्वतीव नोधत्ते भारती वीरनन्दिनः ॥ ३०॥ उनके चन्द्रप्रभचरित काव्यका भी इसमें स्पष्ट उल्लेख है । (१०) मदनकीर्तिप्रबन्ध । विद्वद्रत्नमालामें हमने पं० आशाधरके विषयमें एक विस्तृत लेख प्रकाशित किया है । उसमें पाठकोंने पढ़ा होगा कि पं० आशाधरके समयमें वादीन्द्र विशालकीर्ति, मदन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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