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संदेह नहीं रहा कि यह स्थान प्राचीनकालमें जैनियोंका ' अतिशय क्षेत्र ' था । डाक्टर फुहररको यहाँ पर एक बौद्ध विहार और एक वैष्णवमंदिरके अंश भी मिले। इसी टीलेमें एक जैन स्तूप मिला । स्तूपके एक ओर एक विशाल मंदिर दिगम्बर सम्प्रदायका और दूसरी ओर एक विशाल मंदिर श्वेताम्बर सम्प्रदायका मिला । खोदनेमें ये सब छिन्न भिन्न हो गये । यदि इस काममें असावधानी न होती तो इससे अधिक सफलता प्राप्त होती । खोदनेके समय कई फोटो लिये गये थे। वे अवश्य ही अब तक मौजूद हैं। __जैन स्तूपोंके सम्बन्धमें जितने अनुसन्धान हुए हैं, उनमेंसे अधिकांश विन्सेंट ए. स्मिथ साहबने एक पुस्तकमें संग्रह किये हैं। उसीकी सहायतासे यहाँ पर कुछ लिखा जाता है । परन्तु इससे पहले अच्छा होगा कि स्तूपोंकी बनावटका संक्षेपमें वर्णन कर दिया जाय । स्तूपका पेंदा गोल होता है अर्थात् वह नीचेसे वृत्ताकार होता है । स्तूपमें तीन भाग होते हैं । नीचे एक ऊँचा गोल चबूतरा उसके ऊपर ढोल या कुएके आकारकी इमारत और उसके भी ऊपर एक अर्धगोलाकार गुम्बज (छतरी ) होता है । चबूतरे पर स्तूपके चारों
ओर एक प्रदक्षिणापथ छोड़ कर पत्थरकी लम्बी खड़ी और आडी पटरियोंका एक घेरा ( Railing ) बना रहता है। इस घेरेमें अधि. कतर चारों दिशाओंमें एक तोरण ( Gateway ) बना होता है। यह तोरण बड़ा ही सुन्दर बनाया जाता है । पत्थरके दो स्तंभ खड़े करके उनके ऊपरके सिरों पर तीन आडी पटरियाँ लगा देते हैं। उन्हींके नीचेसे आनेजानेका रास्ता रहता है । तोरण तक जानेके लिए सीढियाँ रहती हैं। ये स्तूप पोले और ठोस दोनों तरहके मिले हैं। जिन्होंने बौद्धोंके स्तूप देखे हैं वे इन बातोंको अच्छी तरह समझ सकेंगे । जैनियोंके भी ऐसे ही स्तूप थे ।
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