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"बीस वर्ष अब बीते जोय । देखो जैनगजटको सोय ॥ देश देशमें उन्नति करी । विद्या धर्म ध्वजा फरहरी ॥ महासभा जब खोला आप । शंकट बड़े सहे संताप ॥ एक ठौर नहि लिया विश्राम । अब कुछ दिनसे अलिगढ़ धाम ॥ श्रीलाल और मिश्रीलाल । सम्पादक हैं देखो हाल ।
इत्यादि । देखिए, कैसी भाव पूर्ण कविता है ! न हुए आज कोई भोज जैसे कवियोंके भक्त ! कवि पहले दो चरणों में कहता है कि जैनगजटको निकालते हुए वीस वर्ष बीत गये, परन्तु उसे देखिए वह 'सोय' अर्थात् जैसाका तैसा है-जहाँका तहाँ है (बल्कि और भी पीछे हठ गया है)। आगे कवि महासभाके प्रसव करनेके कष्टोंका और सन्तापोंका वर्णन करता हुआ और जगह जगह भटकनेकी कथाका स्मरण कराता हुआ एक नई खबर सुनाता है कि हालमें 'अलीगढ़धाम में उसके श्रीलाल और मिश्रीलाल दो सम्पादक हैं ! यह बात अभी तक प्रकाशित न हुई थी । कविको हम उसके रचनाचातुर्यके और स्पष्ट वक्तृत्वके विषयमें बधाई देते हैं।
४ पब्लिक सभाओंका शौक। जैनियोंमें इन दिनों पब्लिक सभाओंका शौक बेतरह बढ़ता जाता हैं। वे अपने प्रत्येक व्याख्याताको और प्रत्येक उपदेशकको बे-जोडलासानी समझते हैं । उनके वचन सुनकर उन्हें जो आनन्दमिश्रित अभिमान होता है उसे वे अपने ही भीतर कैद नहीं रखना चाहते हैं-उसका प्रदर्शन सर्वसाधारणके समक्ष करनेके लिए वे व्याकुल हो उठते हैं । परिणाम यह होता है कि वे किसी अजैन विद्वानको सभापति बनाकर पब्लिक सभाओंकी धूम मचा देते हैं । जब व्याख्यान होते हैं तब बे गद्गद होकर सोचते हैं कि इस अपूर्व रसका स्वाद इन
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