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________________ २४५ ठंडा हुआ उत्साह सारा, आत्म-बल जाता रहा । उत्थानकी चर्चा नहीं, अब पतन ही भाता हहां !! (४) पूर्वज हमारे कौन थे? वे कृत्य क्या क्या कर गये ? किन किन उपायोंसे कठिन भवसिन्धुको भी तर गये ? रखते थे कितना प्रेम वे निजधर्म-देश-समाजसे ? परहितमें क्यों संलग्न थे, मतलब न था कुछ स्वार्थसे ? क्या तत्त्व खोजा था उन्होंने आत्म-जीवनके लिए ? किस मार्गपर चलते थे वे अपनी समुन्नतिके लिए ? इत्यादि बातोंका नहीं तैव व्यक्तियोंको ध्यान है। . वे मोहनिद्रामें पड़े, उनको न अपना ज्ञान है ॥ सर्वस्व यों खोकर हुआ तू दीन, हीन, अनाथ है ! कैसा पतन तेरा हुआ, तू रूढ़ियोंका दास है ! ! ये' प्राणहारि पिशाचिनी, क्यों जालमें इनके फँसा । ले पिण्ड तू इनसे छुड़ा, यदि चाहता अब भी जियो । जिस आत्म-बलको तू भुला बैठा उसे रख ज्ञानमें । क्या शक्तिशाली ऐक्य है, यह भी सदा रख ध्यानमें । निज पूर्वजोंका स्मरण कर कर्तव्यपर आरूढ़ हो । ... बन स्वावलम्बी, गुण-ग्राहक; कष्टमें न अधीर हो ॥ १ तेरे व्यक्तियोंको अर्थात् जैनियोंको । २ ये रूढ़ियाँ प्राणोंको हरनेवाली पिशाचिनी हैं । ३ जीवित रहना । ४ एकता, इत्तफ़ाक् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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