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________________ २४४ न होंगे, सबकी सहानुभूति और प्रीति सम्पादन न करेंगे-संक्षेपमें जब तक हम अपना अपने परमार्थिक धर्मके समान ' राष्ट्रप्रेम' नामक एक और दूसरा धर्म न बनावेंगे तब तक अपनी रक्षा कदापि न कर सकेंगे। यदि हम अब भी न चेते-अब भी हमने भारतको अपना देश न समझा, तो याद रखिए कि इस चढाबढीके कठिन समयमें'निर्बलोंको जीते रहनेका अधिकार नहीं है ' इस सिद्धान्तको माननेवाले समयमें हमारी वही दशा होगी जो भारतकी अन्त्यज जातियोंकी 4 हो रही है । यदि जागना हो तो अभी जागो, नहीं तो सदाके लिए सोते रहो। समाज-सम्बोधन। दुर्भाग्य जैनसमाज, तेरी क्या दशा यह होगई ! कुछ भी नहीं अवशेष, गुण-गरिमा सभी तो खो गई। शिक्षा उठी, दीक्षा उठी, विद्याभिरुचि जाती रही ! अज्ञान दुर्व्यसनादिसे मरणोन्मुखो काया हुई ! (२) वह सत्यता, समुदारता तुझमें नज़र पड़ती नहीं ! दृढ़ता नहीं, क्षमता नहीं, कृतविज्ञर्ता कुछ भी नहीं ! सब धर्मनिष्ठा उठ गई, कुछ स्वाभिमान रहा नहीं ! भुजबल नहीं, तपबल नहीं, पौरुष नहीं, साहस नहीं ! क्या पूर्वजोंका रक्त अब तेरी नसोंमें है कहीं ? सब लुप्त होता देख गौरव जोश जो खाता नहीं । १ गुणोंकी गुरुता-उत्कृष्टता । २ मरणके सन्मुख । ३ कृतज्ञता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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