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लोग पण्डित तो हो गये हैं किन्तु सच्चे मनुष्यत्वको खो बैठे हैं । यदि मनुष्यों के साथ मनुष्यभावसे हमारी गतिविधि या मेलजोल होता रहे, तो घरद्वारकी वार्ता, सुखदुःखकी जानकारी, बालबच्चोंकी खबर, प्रतिदिनकी अलोचना आदि सब बातें हमारे लिए बहुत ही सहज और सुखकर मालूम हों । परन्तु हमारी दशा इससे उलटी है । हमारे लिए ये सब बातें कठिन और कष्टकर हैं । पुस्तकोंके मनुष्य गढ़ी - गढ़ाई बातें ही बोल सकते हैं और इसलिए वे जिन सब बातों में हँसते हैं वे सचमुच ही हास्यरसात्मक होती हैं और जिन बातों में रोते हैं वे अतिशय करुण होती हैं । किन्तु जो वास्तविक मनुष्य हैं उनका विशेष झुकाव रक्तमांसमय प्रत्यक्ष मनुष्योंकी ओर होता है और इसीलिए उनकी बातें, उनका हँसना- रोना पहले नम्बरका नहीं होता । और यह ठीक भी है। वास्तव में उनका, वे स्वभावतः जो हैं उसकी अपेक्षा अधिक होनेका आयोजन न करना ही अच्छा है मनुष्य यदि पुस्तक बननेकी चेष्टा करेगा, तो इससे मनुष्य का स्वाद नष्ट हो जायगा -उसमें मनुष्यत्व न रहेगा ।
चाणक्य पण्डित कह गये हैं कि जो विद्याविहीन हैं वे " सभामध्ये न शोभन्ते" अर्थात् सभा के बीच शोभा नहीं पाते । किन्तु सभा तो सदा नहीं रहती -- समय पूरा हो जानेपर सभापतिको धन्यवाद देकर उसे तो विसर्जन करना ही पड़ती है । कठिनाई यह है कि हमारे देश आजकल विद्वान् सभा के बाहर " न शोभन्ते" शोभा नहीं देते । वे पुस्तक के मनुष्य हैं, इसीसे वास्तविक मनुष्योंमें उनकी कोई शोभा प्रतिष्ठा नहीं ।
( अपूर्ण । )
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