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________________ २१६ चेष्टाका प्रयोग करनेमें जो कष्ट और जो कठिनाई भोगनी पड़ती है उसीसे ही हमें वास्तविक सुख होता है और उसीसे, हम जो कुछ प्राप्त करते हैं, वह कीमती हो जाता है । पुस्तकपाठी . बाबूपनेमें भी, वह आनन्द और वह सार्थकता नहीं रहती जो ज्ञानको स्वयं अपनी चेष्टासे प्राप्त करनेमें या कठिन परिश्रमसे सत्यकी खोज करनेमें है। पुस्तकोंपर ही सारा दारोमदार रखनेसे धीरे धीरे मनकी स्वाधीन शक्ति नष्ट हो जाती है और उस शक्तिके संचालन करनेमें जो सुख है वह भी नहीं रहता, बल्कि यदि कभी उसको संचालन करनेकी आवश्यकता होती है तो उलटा कष्ट होता है। .. ___ इस तरह जब हमारा मन बचपनसे ही पुस्तक पढ़नेके आवरणसे ढंक जाता है तब हम मनुष्योंके साथ सहज भावसे मिलने जुड़नेकी शक्तिको खो बैठते हैं । जो दशा हमारे कपड़ोंसे ढंक हुए शरीरकी हुई है-वह उघडा होने में संकोच करने लगा है वही दशा हमारे पुस्तकावृत मनकी भी हो गई है-वह भी बाहर नहीं आना चाहता। इस बातको हम प्रतिदिन ही देखते हैं कि सर्व साधारणका सहज भावसे आदर सत्कार करना, उनके साथ आत्मभावसे मिल जुलकर बातचीत करना आजकलके शिक्षितोंके लिए दिनपर दिन कठिन होता जाता है । वे पुस्तकके लोगोंको पहचानते हैं परन्तु पृथिवीके लोगोंको नहीं पहचानते;-उनके लिए पुस्तकके लोग तो मनोहर हैं परन्तु पृथिवीके लोग श्रान्तिकर हैं । वे बड़ी बड़ी सभाओंमें व्याख्यान दे सकते हैं परन्तु सर्वसाधारणके साथ बातचीत नहीं कर सकते। बड़ी बड़ी पुस्तकोंकी आलोचना तो कर सकते हैं परन्तु उनके मुँहसे सहज बोलचाल-साधारण बातचीत भी अच्छी तरह बाहर नहीं निकलना चाहती। इन सब बातोंसे कहना पड़ता है कि दुर्भाग्यवश ये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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