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________________ २०७ बिना संकोचके बहुत अच्छी तरह किया करते थे । परन्तु इस समय हमने अँगरेजोंकी नकल करके शिशुओंके शरीर देखकर भी लज्जित होना शुरू कर दिया है । केवल विलायतसे लौटे हुए ही नहीं, शहरोके रहनेवाले साधारण गृहस्थ भी आजकल अपने बच्चोंको किसी पाहुनेके सामने नंगा उघाडा देखकर संकुचित होते हैं और इस तरह बच्चोंको भी निजकी देहके सम्बन्धमें संकुचित कर डालते हैं। ऐसा करनेसे हमारे देशके शिक्षितोंमें एक प्रकारकी बनावटी लजाकी सृष्टि हो रही है । जिस उमरतक शरीरके सम्बन्धमें किसी प्रकारकी कुण्ठा या लज्जा नहीं होनी चाहिए, उस उमरको अब हम पार नहीं कर सकते हैं-अब हमारे लिए मनुष्य, जन्मसे लेकर मरणतक लिजाका विषय बनता जाता है । यदि कुछ समय तक और भी हमारी यही दशा रही, तो एक दिन ऐसा आ जायगा कि हम चौकी टेबिलोंके पायोंको भी बिना ढका या नग्न देखकर लाल पीले होने लगेंगे ! ___ यदि यह केवल लञ्जाकी ही बात होती, तो मैं आक्षेप नहीं करता। किन्तु इससे पृथ्वापर दुःखकी वृद्धि होती है । हमारी लजाके कारण बच्चे व्यर्थ ही कष्ट याते हैं । इस समय वे प्रकृतिके ऋणी हैं, सभ्यताका ऋण लेना उन्हें पसन्द ही नहीं। परन्तु बेचारे क्या करें; रोनेके सिवा उनके पास और कोई बल नहीं । अपने पालनपोषण करनेवालोंकी लज्जा निवारण करनेके लिए और उनके गौरवको बढ़ानेके लिए उन्हें जरी और रेशमके कपड़ोंसे घिरकर वायुके करस्पर्श और प्रकाशके चुम्बनसे वंचित होना पड़ता है । इससे वे रोकर और चिलाकर बधिर विचारकके कानोंके समीप शिशुजीवनका अभियोग उपस्थित किया करते हैं । परन्तु बेचारे यह नहीं जानते कि पितामातामें एक्जिक्यूटिव् ( कारगुज़ार) और जुडीशल् ( अदालती ) एकत्र हो जानेसे उनका सारा आन्दोलन और आवेदन व्यर्थ हो जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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