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________________ DHARMA EVAM BADALATE HUE MULYA 301 जैसे दर्शनों के प्रचारक अपने को प्राचीन वैदिक धर्म के अनुयायी ही मानते थे । इसके विपरीत कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि एक ही सम्प्रदाय के अनुगामी अपने नवीकृत धर्म को पहचानने में भी असमर्थ रहते हैं । जैनों के २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के शिष्य अपने को भगवान् महावीर के शिष्यों से अलग मानने लगे । प्राचीन चातुर्याम् एवं सचेलक धर्म के स्थान पर जब महावीर ने पंचशिक्षिक एवं अचेलक धर्म का प्रचार किया तो निर्ग्रन्थ पन्थ के अनुगामियों को अपने ही धर्म में संशय उत्पन्न होने लगा जिसका समाधान केशी गौतमीय अध्ययन (उत्तराध्ययन सूत्र, २३) में किया गया है । मूल्यों की परिस्थिति भी ऐसी ही है । मूल्य बदल जाते हैं, पर उनका यह बदलना शाब्दिक साम्य के पीछे प्रच्छन्न रहता है । चूंकि भगवान् बुद्ध ने सभी पदार्थों को अनित्य माना, श्रतः बौद्ध धर्म के अनुयायी हमारे इस विश्लेषरण को सहर्त स्वीकार करेंगे । शांकर वेदान्त अनुगामी भी इसमें अपनी सहमति प्रकट करेंगे क्योंकि उनके दर्शन में ब्रह्म ही एकमात्र मूल्य है, जिसकी प्रभा से दूसरे मूल्य, जो सभी मायिक हैं, प्रभास्वर होते हैं । पर दूसरे प्रायः सभी दर्शन धर्म तथा मूल्य दोनों को शाश्वत एवं परिवर्तनशील उभयरूप मानेंगे । ऐकान्तिक रूप से न धर्म बदलता है, न मूल्य । ध्रुवता एवं ध्रुवता दोनों परस्पर जुड़ी हुई हैं । न धर्म अपने मौलिक स्वरूप को कभी छोड़ सकता है, और न मूल्य ही । जबतक मानवजाति रहेगी तब तक मानव धर्म तथा मानव मूल्य भी रहेंगे । यदि मानव श्रमानव नहीं बन सकते तो मानव धर्म एवं मूल्य का भी मामूल परिवर्तन कैसे हो सकता ? इस प्रश्न का समाधान केवल अनेकान्त दृष्टि से ही हो सकता है । एक ही वस्तु किस तरह नित्य भी हो सकती है श्रौर प्रनित्य भी इस समस्या के समाधानार्थ स्वयम्भूस्तोत्र का ४३वां श्लोक उद्धृत करता हुआ में अपना विवेचन समाप्त करता हूँ । नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेर्न नित्यमन्यप्रतिपत्तिसिद्धैः । न तद्विरुद्धं बहिरन्त रंग-निमित्त नेमितिक-योगतस्ते || अर्थात् 'यह वही है' - इस प्रकार की प्रतीति होने के कारण वस्तुतस्त्व नित्य है । पुनः 'यह वह नहीं है' - इस प्रकार की प्रतीति होने के कारण वस्तुतत्त्व अनित्य भी है । हे भगवन् ! आपके शासन में वस्तुतत्व का नित्यं धौर अनित्य उभयरूप होना विरुद्ध नहीं है, क्योंकि वह बहिरंग निमित्त (अर्थात् सहकारी कारण) अन्तरंग निमित्त ( उपादान कारण) एवं नैमित्तिक ( निमित्तों से उत्पन्न होने वाले कार्य के सम्बन्ध) को अपने में एक साथ समाविष्ट किये हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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