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- धर्मज्ञान के मूल : अनुभूति एवं तर्क'
. देवनारायण शर्मा वस्तुतः सच्चे धर्म के ज्ञान कराने वाले क्या तर्क एवं अनुभूति दोनों हैं ? अथवा केवल तर्क या केवल अनुभूति—यह प्रश्न अत्यन्त गम्भीर है। हम धर्म की व्याख्या “आचारप्रभवोधर्मः२" माने अथवा "धारणाद्धर्ममित्याहु" इसे स्वीकार करें अथवा मीमांसकों के अनुसार "चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः" कहें, किन्तु, धर्म-संशय की स्थिति में इनके द्वारा किसी निर्णय पर पहुँचना सर्वथा कठिन है। क्योंकि इन व्याख्यानों में से किसी के द्वारा भी धर्म-जिज्ञासु किसी स्पष्ट निश्चित दिशा को नहीं प्राप्त कर सकता। उसकी जिज्ञासा ज्यों के त्यों बनी रह जाती है। क्योंकि ये आचरण, धाराणाएँ और प्रेरणाएँ एक नहीं अनेक प्रकार की हैं और परस्पर विरोधी भी हैं।
___ महाभारत के अन्तर्गत ठीक ऐसा ही प्रश्न यक्ष के द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर के सम्मुख उपस्थापित हम पाते हैं और इस पर धर्मराज का उत्तर इस प्रकार प्राप्त होता है
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नानैको ऋषिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येनगतः स पन्थाः ।।
[म० भा० वनपर्व ३१३, ११७] अर्थात् यदि तर्क को देखें तो यह चंचल है, तात्पर्य यह कि जिसकी बुद्धि जैसी तीव्र होती है, वैसे ही अनेक प्रकार के अनेक अनुमान तर्क के द्वारा निष्पन्न होते हैं। श्रुति अर्थात् वेदाज्ञा देखी जाय, तो वह भी भिन्न-भिन्न है।
और यदि स्मृतिशास्त्र को देखें तो ऐसा एक भी ऋषि नहीं है, जिसका वचन अन्य ऋषियों की अपेक्षा अधिक प्रमाणभूत समझा जाय। और यदि धर्म का मूलतत्त्व देखा जाय तो वह अत्यन्त सूक्ष्म रहस्यमय होने के कारण साधारण लोगों की समझ में आ नहीं सकता। इस कारण महापुरुषों के द्वारा अपनाया गया मार्ग ही धर्मज्ञान का सच्चा मार्ग है।
यद्यपि ऊपर की यह युक्ति सामान्य लोगों के लिए अपेक्षाकृत सरल प्रतीत होती है, तब भी सभी बातों में इसका निर्वाह संभव नहीं। क्यों कि
१. ८ अप्रील १६७१ को विद्वद्गोष्ठी में पठित निबन्ध । २. म० भा० अनु० १०४, १५६ (सम्पादक प० रामचन्द्र शास्त्री, चित्रशाला
प्रेस, पूना से प्रकाशित). ३. म० भा० कर्ण० ६६, ५८. ४. मी० सूत्र० १, १, २.
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