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500 V AÍSHALÍ INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1 रहने के फलस्वरूप चित्त में जो स्थिरता पाती है, उसका चरम उत्कर्ष को पहुँचना ही ध्यानपारमिता है । उक्त पांचों पारमितायें प्रज्ञापारमिता के लिए परिकर का काम करती हैं। प्रज्ञा शब्द का अर्थ है यथावस्थित वस्तुतत्त्व की प्रविवेक । इस प्रविवेक का परम प्रकर्ष ही प्रज्ञापारमिता है। इस प्रज्ञापारमिता का गणना यद्यपि सबसे अन्त में की गई है, पर यह जान लेना आवश्यक है कि इसके बिना दान, शील, आदि कुछ भी पराकाष्ठा तक नहीं पहुँच सकते। क्रम तो वास्तव में यह है कि प्रज्ञा के बिना ध्यान नहीं, ध्यान के बिना वीर्य नहीं, वीर्य के बिना क्षान्ति नहीं, क्षान्ति के बिना शील नहीं, एवं शील के बिना दान नहीं । प्राणातिपातादि से विरमण रूप शील का अभ्यास बिना किये कोई निष्काम दानी नहीं बन सकता। इसी तरह, क्षान्ति का अभ्यास बिना किये शीलवान् बनना संभव नहीं, कारण क्षमावान् बिना हुए शील का पालन दुष्कर है। क्षमा वीरस्य भूषणम्-यह कथन सर्वजनस्वीकृत है। अतः वीर्य के बिना शान्ति की पराकाष्ठा को कोई कैसे पहुंच सकता है ? इसी तरह ध्यान के बिना वीर्य भी संभव नहीं क्योंकि समुद्यमी होने के लिए एकाग्रंगा-जन्य सौमनस्य एवं प्रसन्नता की परम आवश्यकता है । पुन:, चूकि ध्यान की विशुद्धि प्रज्ञा के बिना संभव नहीं, अतः प्रज्ञा का विकास ध्यान के लिए अनिवार्य माना जाता है। इन पारमितानों के अभ्यास से चित-शुद्धि प्राप्त होती है, जो मनुष्य को सही रास्ते पर ले जाने में सहायक होती है। भौतिक, नैतिक तथा प्राध्यात्मिक सभी प्रकार की उन्नति के लिए चित्तशुद्धि का होना अति आवश्यक है । सच्चे विकास की प्राधारशीला चित्तविशुद्धि ही है ।
. अब हम अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह पर विचार करें। उपर्युक्त दानपारमिता का समावेश अस्तेय एवं अपरिग्रह व्रतों में हो जाता है। शीलपारमिता का समावेश ब्रह्मचर्य व्रत में, एवं क्षान्तिपारमिता का समावेश अहिंसा व्रत में किया जा सकता है। प्रज्ञापारमिता का अन्तर्भाव सहज ही सत्य व्रत में हो जाता है। इस दृष्टि से हम अहिंसा प्रादि व्रतों को निम्नोक्त क्रम में सजा सकते हैं-अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अहिंसा एवं सत्य । इस क्रम में सत्य ही सभी व्रतों का नियामक तत्त्व बन जाता है । जैन आगमों की निम्नोक्त सूक्तियां भी इसमें चरितार्थ हो जाती हैं
(१) सच्चं लोगम्मि सारभूदं (सत्य ही लोक में सारभूत है)।
(२) पढमं गाणं तो दया (पहले ज्ञान, बाद में दया)। गान्धी दर्शन में भी सत्य का स्थान पहला ही है। प्राचरण की दृष्टि से प्राचीन शास्त्रों में अहिंसा की गणना प्रथम स्थान में की जाती है, पर वास्तव में सत्य ही सर्वोपरि है ।
(६) अब हमें धर्म एवं मूल्यों की शाश्वतता एवं परिवर्तनशीलता पर विचार करना है। सभी धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म को शाश्वत मानते हैं, क्योंकि वे साधारणतया परिवर्तन पसन्द नहीं करते, यद्यपि परिवर्तन अनिवार्य रूप से प्रा ही जाते हैं । कभी-कभी तो ऐसा भी देखा जाता है कि साम्प्रदायिक मनोवृत्तिवाले अपने को पुराने ही धर्म के अनुपालक समझते हैं, जब कि उनके धर्म में काफी परिवर्तन अज्ञात रूप से परिस्थितिवश मा गया होता है। उदाहरणार्थ हम वैदिक धर्म को मानने वालों को ले सकते हैं। प्राचीन याग-यज्ञ जब प्रायः समाप्त हो रहे थे, उस समय भी सांख्य, वेदान्त
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