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DHARMA EVAM BADALATE HUE MOLYA
297 मनिवार्य एवं अविभाज्य भंग नहीं बन सकी । परन्तु महायानी बौद्धों ने ऐसी प्रवृत्ति को धर्म का अन्तरंग माना । हीनयानी बौद्धों ने क्लेशावरण अर्थात् लोभ, द्वेष एवं मोह से युक्त होने को ही निर्वाण माना, जिसे महायानी बौद्धों ने स्वीकार नहीं किया । विश्व के सर्वांगीण हितसाधन को ही उन्होंने धर्म का एकमात्र उद्देश्य माना एवं उसी उद्देश्य से प्रेरित होकर बोधिचित्त की कल्पना की। बोधिचर्यावतार (३.७-१०) में बोधिचित्तगत संकल्प का वर्णन इस प्रकार किया गया है
ग्लानानामस्मि भैषज्यं भवेयं वैद्य एव च । तदुपश्थायकश्चैव यावद्रोगापुनर्भवः ।। क्षुत्पिपासाव्यथां हन्यामन्नपानप्रवर्षणैः । दुभिक्षान्तरकल्पेषु भवेयं पानभोजनम् ।। दरिद्राणां च सत्त्वानां निधिः स्यामहमक्षयः । नानोपकरणाकारैरुपतिष्ठेयमग्रतः ॥ प्रात्मभावांस्तथा भोगान् सर्वत्रयध्वगतं शुभम् ।
निरपेक्षस्त्यजाम्येष सत्वासर्वर्थसिद्धये ॥ अर्थात्, "व्याधि पीड़ितों के लिए मैं प्रौषध बनूं एवं उनकी रोग निवृत्ति तक मैं उनका वैद्य एवं परिचारक बना रहूं। मैं प्राणियों की क्षुधा एवं पिपासा की व्यथा को सतत अन्न-पान आदि के सम्पादन द्वारा दूर करना चाहता हूँ। दुर्भिक्षग्रस्त अन्तरकल्पों में मैं पान तथा भोजन के रुप में परिणत होना चाहता हूँ। दरिद्र प्राणियों के लिए मैं अक्षय धनराशि बनना, तथा विविध उपकरण बनकर उनके सामने उपस्थित होना चाहता हूँ। मैं निष्काम भाव से, अपने शरीरों का, भोगों का एवं प्रतीत, अनागत तथा वर्तमान तीनों कालों में अजित पुण्य फलों का त्याग सब प्राणियों के अभ्युदय एवं निश्रेयस की सिद्धि के निमित्त करता हूँ।" बोधिसत्त्व तब तक मोक्ष प्राप्त करना नहीं चाहता जबतक एक भी प्राणी संसार में किसी प्रकार का दु:ख भोग करता हो। मोक्ष की यह उदात्त कल्पना बौद्ध धर्म की एक अपूर्व देन है। इस कल्पना के मूल में है दुःखार्त प्राणियों के प्रति सतत सक्रिय असीम करुणा एवं अनन्त प्रज्ञा । भगवान् बुद्ध के सद्धर्म
का विकास उत्तरोत्तर होता गया, जिसमें इस कल्पना को एक प्रत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान . प्राप्त हुआ।
बदलते हुए मूल्यों के इस विवेचन के प्रसंग में पर्युषण पर्व की चर्चा करना भी असंगत नहीं होगा। पर्युषण का अर्थ है नियत स्थान में वास करना वर्षावासार्थ उपयुक्त स्थान का चुनाव भाद्र शुक्ला पंचमी तक कर लेना आवश्यक माना गया था। अतः इस तिथि को अन्त में या प्रादि में रख कर उसके ८ दिन पूर्व या १० दिन पश्चात् तक पर्युषण या दशलक्षणी पर्व मनाने की प्रथा चल पड़ी। हिन्दू, जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों से वर्षावास की चर्चाओं के तुलनात्मक अध्ययन से पर्युषण पर्व के क्रमविकास पर काफी प्रकाश डाला जा सकता है। तात्पर्य यह है कि हमारे धार्मिक पर्व के स्वरूप भी युग-युग में प्रयोजनानुसार बदलते रहे हैं।
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