________________
296 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. I की शिक्षा गांधीजी ने गीता से प्राप्त की एवं उसके तात्पर्य को पर्याप्त मात्रा में विस्तृत भी किया। गांधीजी के निम्नोक्त कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है। वे कहते हैं-"गीता सूत्रग्रन्थ नहीं है । गीता एक महान् धर्मकाव्य है। उसमें जितने गहरे उतरिये उतने ही उसमें से नये और सुन्दर अर्थ लीजिये। गीता जनसमाज के लिए है, उसने एक ही बात को अनेक प्रकार से कहा है। प्रतः गीता में आये हुए महाशब्दों का अर्थ युग-युग में बदलता और विस्तृत होता रहेगा। गीता का मूलमंत्र कभी नहीं बदल सकता। वह मंत्र जिस रीति से सिद्ध किया जा सके उस रीति से जिज्ञासु चाहे जो अर्थ कर सकता है। गीता विधिनिषेध बतलाने वाली भी नहीं है । एक के लिए जो विहित होता है, वही दूसरे के लिए निषिद्ध हो सकता है। एक काल या एक देश में जो विहित होता है, वह दूसरे काल में, दूसरे देश में निषिद्ध हो सकता है । निषिद्ध केवल फलासक्ति है, विहित है अनासक्ति' (अनासक्तियोम, प्रस्तावना)। युग, परिस्थिति एवं वैज्ञानिक प्रकाश के अनुकूल धर्म में या धार्मिक मूल्यों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है । यह गीता का निष्कर्ष है। गांधीजी के जीवन में हम सभी भारतीय धर्मों का मूर्तिमान समन्वय पाते हैं, एवं यदि यह कहा जाय कि गांधीजी ही एकमात्र ऐसे महापुरुष हैं जिनके जीवन में हिन्दू, बौद्ध एवं जैन धर्म के उच्च आदर्श पूर्णरूपेण प्रतिफलित हुए हैं तो अत्युक्ति नहीं होगी। गांधीजी अति-कर्मी होते हुए भी अति-अकर्मी थे। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति का पारस्परिक विरोध, जो ब्राह्मण एवं श्रमण परम्पराओं के दृष्टिबिन्दुओं में निहित था, गांधीजी के जीवन में शान्त हो गया। जैन अहिंसा की सच्ची व्याख्या तो वर्तमान युग में गांधीजी के जीवन में ही दृष्टिगोचर होती है। युद्ध और शान्ति के क्षेत्र में गांधीजी ने अहिंसा के प्रयोग किए एवं फलस्वरूप सत्याग्रह की कल्पना प्राई । नरसंहारी युद्ध का कोई प्रतिद्वन्द्वी विकल्प हो सकता है तो वह सत्याग्रह ही है ।
अब हम मोक्ष तत्त्व के विकास पर दृष्टि डालें। मोक्ष की कल्पना स्वर्ग की कल्पना के बाद ही प्राई होगी। हो सकता है दोनों कल्पनायें स्वतंत्र रूप से उत्पन्न हुई हों। कुछ भी हो, पर मोक्षवाद क्रमशः प्रबल होता गया एवं स्वर्गवाद संकुचित होता गया । प्रायः सभी मोक्षवादी संसार को दुःखमय मानते हैं। सांख्यकारिका (कारिका १) का निम्नोक्त कथन सामान्यतः प्रायः सभी मोक्षवादी धर्मों को मान्य है
दुःखत्रयाभिधाताज्जिज्ञासा तदपधातके हेतौ। अर्थात्, आध्यात्मिक, प्राधिभौतिक एवं आधिदैविक - इन त्रिविध दुःखों से पीड़ित होने के कारण, उन दुःखों को नाश करने वाले हेतु को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है । दुःख से सदा के लिए मुक्ति पाना इन सभी धर्मों का ध्येय है, फिर भले ही मोक्ष या निर्वाण को सच्चिदानन्द रूप माना जाय, या शुद्ध चेतना रूप माना जाय, या ज्ञान, अज्ञान, सुख, दुःख प्रादि विशेष गुणों से रहित प्रात्मा की शुद्ध स्थिति रूप ही माना जाय । भले बुरे सभी प्रकार के कर्मों से छुटकारा पाना ही मोक्ष है । संसार में रहकर सांसारिक दुःखों को दूर करने तथा सुव्यवस्थित समाज निर्माणार्थ प्रयत्न करने की दिशा में भी ये धर्म प्रवृत्त रहे । पर, चूंकि निवृत्ति-प्रधान साधना द्वारा व्यक्तिगत मोक्ष प्राप्त करना ही इन धर्मों का मुख्य उद्देश्य था, वह सामाजिक प्रवृत्ति प्राध्यात्मिक धर्म का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org