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________________ DHARMA EVAY BADALATE HUE MULYA 295 अहिंसा व्रत का अर्थ है हिंसा से विरति । हिंसा का स्थूल अर्थ है प्राणि-वध । इस प्राणि-वध से बचने के लिए जैन धर्म में कई नियम किये गये हैं, जिनका पालन असंभव नहीं तो अत्यन्त दुष्कर तो है ही। भारतीय धर्मों के इतिहास में अहिंसा-सिद्धान्त अत्यन्त घनिष्ट रूप से जैन धर्म से सम्बद्ध है। द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा का विश्लेषण जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। अहिंसा पर जैन धर्म ने इतना अधिक भार दिया कि जैन सम्प्रदाय निवृत्तिमार्ग की पराकाष्ठा पर पहुँच गया एवं अव्यावहारिकसा प्रतीत होने लगा। फलस्वरूप जैनेत र चिन्तक जैन धर्म को अति दुःसाध्य समझने लगे। दूसरी ओर बौद्ध धर्म में अहिंसा को इतना शिथिल कर दिया गया कि बौद्ध धर्म की लोग कटु आलोचना करने लगे। परन्तु परवर्ती काल में वाचक उमास्वाति ने हिंसा का जो लक्षण किया वह भारतीय दर्शन को जैन दर्शन की एक अमूल्य देन कही जा सकती है। पातंजल-योग-भाष्य (२.३०) में अहिंसा का लक्षण निम्नांकित प्रकार किया गया था-- अहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः । अर्थात, किसी प्रकार से किसी जीव का पीड़न नहीं करना ही अहिंसा है। आचार्य वसुबन्धु अपने अभिधर्मकोश (४:७३) में प्राणातिपात (= हिंसा) की व्याख्या इस प्रकार करते हैं : प्राणातिपात: संचिन्त्य परस्याभ्रान्तिमारणम् । अर्थात्, मारने की इच्छा से दूसरे प्राणी का भ्रान्ति रहित (अचूक) हनन करना ही प्राणातिपात है। उपर्युक्त दोनों लक्षणों में पीड़ित या हनन क्रिया को ही महत्त्व दिया गया है। परन्तु वाचक उमास्वाति ने हिंसा के लक्षण में प्रमत्त योग का ही प्राधान्य दिया है। वे कहते हैं (तत्त्वार्थसूत्र, ७.८) प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिसा। अर्थात, प्रमत्तयोग से होने वाला प्राणवध हिंसा है। इस सूत्र का स्पष्टीकरण पंडित श्री सुखलालजी ने इस प्रकार किया है-"हिंसा की व्याख्या दो अंशों द्वारा पूरी की गई है। पहला अंश है --प्रमत्तयोग अर्थात रागद्वेषयुक्त अथवा असावधान प्रवृत्ति, और दूसरा है-प्राणवध । पहला अंश कारण रूप में और दूसरा कार्य रूप में है। इसका फलित अर्थ यह है कि जो प्राणवध प्रमत्तयोग से हो वह हिंसा है।" उपर्युक्त चर्चा से यह फलित होता है कि जैन दर्शन में हिंसा-अहिंसा के प्रश्न को जैसा महत्व दिया गया है वैसा जैनेतर दर्शनों में परिलक्षित नहीं होता। गांधीजी ने अपने अनासक्तियोग में अहिंसा के स्वरूप को और अधिक विकसित किया। गीता का तात्पर्य फलत्याग तथा अहिंसा में है, न कि भौतिक युद्ध में। गीता में पशुहिंसा का समर्थन नहीं किया गया है। गीता की गहराई से नये-नये अर्थ निकाले जा सकते हैं, क्योंकि वह एक महाकाव्य है। अपने समय तक में विकसित नैतिक तथा प्राध्यात्मिक मूल्यों का नवीकरण गीता ने किया एवं युग-युग में होने वाले परिवर्तनों को योतित करने की शक्ति भी उसके महाशब्दों में विद्यमान है। अनासक्तियोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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