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________________ 294 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 1 शोभा देता है और अर्थ की जगह अर्थ। बहुतों से ऐसा कहते हम सुनते हैं । गीताकार ने इस भ्रम को दूर किया है। उसने मोक्ष और व्यवहार के बीच ऐसा भेद नहीं रखा है, वरन् व्यवहार में धर्म को उतारा है। जो धर्म व्यवहार में न लाया जा सके वह धर्म नहीं है, मेरी समझ से यह बात गीता में है।" योग शब्द की यह प्राधुनिक व्याख्या समयानुकूल मूल्यों के उत्क्रमण का एक स्पष्ट उदाहरण है। मूल्यों के ऊर्ध्वगामी परिवर्तन के प्रसंग में ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अहिंसा एवं मोक्ष तत्त्व के पुनर्मूल्यांकन पर भी विचार किया जा सकता है। जननेन्द्रिय के विकारों पर अंकुश रखना ही ब्रह्मचर्य का पालन है-ऐसा माना गया था। पर गांधीजी ने इस परिभाषा को व्यापकता प्रदान की, और उसे जीवन में उतारने के प्रयत्न किये । वे कहते हैं-"सारे विषयों पर अंकुश रखना ही ब्रह्मचर्य है । जो दूसरी इन्द्रियों को जहां तहां भटकने देता है और एक ही इन्द्रिय को रोकने की कोशिश करता है, वह निष्फल प्रयत्न करता है, इसमें क्या शंका है" (संयम और संततिनियमन, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदावाद, १९६२, पृष्ठ ११३)। अपने जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत उतारने के प्रसंग में गांधीजी कहते हैं :-"ब्रह्मचर्य के सम्पूर्ण पालन का अर्थ है ब्रह्मदर्शन। यह ज्ञान मुझे शास्त्र द्वारा नहीं हुआ। यह अर्थ मेरे सामने क्रम-क्रम से अनुभवसिद्ध होता गया। उससे सम्बन्ध रखनेवाले शास्त्र-वाक्य मैंने बाद में पढ़े। अब ब्रह्मचर्य को एक घोर तत्पश्चर्या के रूप में रहने देने के बदले उसे रसमय बनाना था, उसी के सहारे निभना था इसलिये अब उसकी विशेषताओं के मुझे नित-नये दर्शन होने लगे । इस प्रकार यद्यपि मैं इस व्रत में से रस लूट रहा था, तो भी कोई यह न माने कि मैं उसकी कठिनाई का अनुभव नहीं करता था प्राज मुझे ५६ वर्ष पूरे हो चुके हैं, फिर भी इसकी कठिनता का अनुभव तो मुझे होता ही है। यह एक प्रसिधारा व्रत है, इसे मैं अधिकाधिक समझ रहा हूँ। और निरन्तर जागृति की आवश्यकता का अनुभव कर रहा हूँ" (वही, पृ० १००)। गांधीजी के ब्रह्मचर्य विषयक इस पुनर्मूल्यांकन की दिशा वही है जो उनके द्वारा किये गये कर्मयोग सम्बन्धी विकास की है। अपरिग्रह शब्द का अर्थ है परिग्रह नहीं रखना। इस व्रत के पूर्ण पालन के लिए संन्यासी लोग वस्त्र तक का त्याग कर देते हैं, क्योंकि वस्त्र भी तो आखिर में परिग्रह ही है। यहां तक तो ठीक है। पर यदि कोई ऐसा समझ ले कि जीवनयात्रार्थ अपनी न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के लिए जो वस्त्र, पात्र आदि उपकरण रखता है वह संन्यासी ही नहीं है, तो परिस्थिति अव्यावहारिक बन जाती है। इस प्रश्न को लेकर ही शायद जैन संघ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-इन दो भागों में बँट गया। जैनाचार्य वाचक उमास्वाति ने इस प्रश्न का समाधान-मूर्छा परिग्रहः (मूर्छा अर्थात् आसक्ति ही परिग्रह है, तत्त्वार्थसूत्र ७.१२) ऐसा कह कर किया। इस विषय में गांधीजी कहते हैं-"वास्तव में परिग्रह मानसिक वस्तु है। मेरे पास घड़ी है, रस्सी है और कच्छ (लंगोटी) है। इनके अभाव में यदि मुझे क्लेश होता है तो मैं परिग्रही हूँ। यदि किसी को बड़े कम्बल की जरूरत है तो वह उसे रखे, पर खो जाने पर क्लेश न करे तो वह अपरिग्रही है" (नीतिः धर्मः वर्शन, गांधी-साहित्य-प्रकाशन, इलाहाबाद, १९६८, पृ० २७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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