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________________ DHARMA EVAM BADALATE HUE MÜLYA 293 अर्थात्, "इस प्रकार भाँति-भाँति के यज्ञ ब्रह्म के ही मुख में अर्पित हैं । यह जानो कि वे सब कर्म से निष्पन्न होते हैं । यह ज्ञान हो जाने से तू मुक्त हो जायगा । हे परन्तप ! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानमय यज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ! सब प्रकार के समस्त कर्मों का पर्यवसान ज्ञान में होता है ।" भक्तिमागियों के लिए गीताकार जपयज्ञ का विधान इस प्रकार करते हैं (१०.२५) - अज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि; अर्थात्, यज्ञों में मैं स्वयं जपयज्ञ हूँ । मनुस्मृति (३.७० - १ ) के पाँच महायज्ञ भी इस प्रसंग में मननीय हैं । यज्ञ शब्द का पूरा इतिहास इस तरह स्पष्ट हो जाता है । इस प्रकार के कालिक भेद को हम ऊर्ध्वगामी परिवर्तन कह सकते हैं । उक्त उर्ध्वगामी परिवर्तन के दृष्टान्त के रूप में योग शब्द को भी लिया जा सकता है । योग शब्द का प्राचीन अर्थ था चित्तवृत्तियों का निरोध ( योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः -- योगसूत्र, १.२ ) । परन्तु गीता (२.४८ ) के अनुसार योग का अर्थ है कार्य की सिद्धि या प्रसिद्धि जो भी हो, उसमें समभाव रखना । कर्म करने की कुशलता को भी गीता में योग कहा गया हैः योगः कर्मसु कौशलम् (२.५० ) । यह योग शब्द का अर्थ है कर्मयोग । मीमांसकों के कर्मकाण्ड के स्थान पर कर्मयोग की स्थापना करते हुए गोताकार ने संन्यासमार्ग का भी पुनर्मूल्यांकन किया जो इस प्रकार है (गीता, ५.२) : संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ । तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ देखते हैं अर्थात्, कर्मसंन्यास एवं कर्मयोग — ये दोनों मार्ग मोक्ष प्राप्त करा देने वाले हैं, परन्तु इन दोनों में कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग की योग्यता विशेष है । इस तरह हम कि योग शब्द जो मूल में चितसमाधि के अर्थ में प्रयुक्त था एवं मात्र व्यक्तिगत मुक्ति का साधन था, वह उत्तरवर्ती काल में व्यक्ति एवं समाज के हित साधन की दृष्टि से किये गये सभी प्रकार के कर्तव्यों का वाचक बन गया । आधुनिक युग में लोकमान्य तिलक ( गीता रहस्य, प्रकरण ११ ) एवं महात्मा गांधी के हाथों में तो यह कर्मयोग और भी व्यापक बन गया। गीता के कर्मयोग पर गांधीजी लिखते हैं- "कर्म करते हुए भी मनुष्य बंधन मुक्त कैसे रहे ? जहाँ तक मुझे मालूम है, इस समस्या को गीता ने जिस तरह हल किया है वैसे किसी भी धर्मग्रन्थ ने नहीं किया है। गीता का कहना है, फलासक्ति छोड़ो और कर्म करो, आशारहित होकर कर्म करो, निष्काम होकर कर्म करो । यह गीता की वह ध्वनि है जो भुलाई नहीं जा सकती । जो कर्म छोड़ता है वह गिरता है । कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता हैं वह चढ़ता है । फल त्याग का यह अर्थ नहीं है कि परिणाम के सम्बन्ध में लापरवाही रहे । परिणाम और साघन का विचार और उसका ज्ञान अत्यावश्यक है । इतना होने के बाद जो मनुष्य परिणाम की इच्छा किये बिना साघन Jain Education International में तन्मय रहता है वह फलत्यागी है” (अनासक्तियोग, प्रस्तावना) । लिखते हैं- " साधारणतः तो यह माना जाता है कि धर्म और अर्थ व्यापार इत्यादि लौकिक व्यवहार में धर्म नहीं हो सकती, धर्म का उपयोग केवल मोक्ष के लिए बचाया जा सकता, किया जा सकता है। गांधी जी आगे विरोधी वस्तु हैं, धर्म को जगह नहीं धर्म की जगह धर्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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