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________________ 292 VAISHALI INSTITUTE RÉSEARCH BULLETIN NO. I है, के साथ अहिंसा, अपरिग्रह, आदि नैतिक एवं प्राध्यात्मिक मूल्यों की आवश्यकता अनिवार्य है। हम अपना यह अध्ययन, सहूलियत की दृष्टि से, भारतीय धर्मों तक ही सीमित रखेंगे, ताकि इन धर्मों में विवेचित मूल्यों के इतिहास पर हम विशेष रूप से प्रकाश डाल सकें। (३) मूल्यों के विवेचन के प्रसङ्ग में हमने ऊपर कुछ मूल्यों का उल्लेख किया है, जैसे याग-यज्ञ, व्रत, तपस्या, मोक्ष प्रादि । अब हम देखें कि किस तरह मूल्य बदलते हैं। एक ही नाम से प्रसिद्ध मूल्य का स्वरूप भिन्न-भिन्न धर्मों में भिन्न-भिन्न प्रकार का हो सकता है। उदाहरणार्थ मोक्ष को लीजिए। जैन, बौद्ध, वेदान्त प्रादि दर्शनों में मोक्ष के स्वरूप भिन्न भिन्न हैं, यद्यपि उन सबों के लिए मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण जैसे शब्द निर्विवाद रूप से व्यवहृत होते थे। इस प्रकार के भेद को हम तिर्यक् भेद कह सकते हैं, जो एक ही शब्द के समकालीन विभिन्न प्रर्थों का द्योतक है। समकालीन धर्मों में विभिन्न अर्थवाची यज्ञ शब्द भी इस तिर्यक् भेद का दृष्टान्त है। इसी तरह यह भी देखा जाता है कि एक ही शब्द एक ही धर्म-सम्प्रदाय में भिन्न-भिन्न काल में भिन्न-भिन्न अर्थ धारण करता हुआ गुजरता है। उदाहरणार्थ यज्ञ शब्द को लीजिये। श्रीमद्भगवद्गीता में सर्वगत ब्रह्म ही यज्ञ में सदा अधिष्ठित माना गया है-तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् (३.१५)। अनासक्त कर्म ही वैदिक यज्ञ का तात्पर्य है (३.१६) । गीता (४.२४) स्पष्टरूपेण कहती है-अर्पण अर्थात् हवन करने की क्रिया ब्रह्म है, हविः अर्थात् अर्पण करने का द्रव्य ब्रह्म है, ब्रह्माग्नि में ब्रह्म ने हवन किया है-इस प्रकार जिसकी बुद्धि में सभी कर्म ब्रह्ममय हैं, उसको ब्रह्म ही मिलता है : ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ अपने समय तक विकसित विभिन्न यज्ञों की सूची गीता (४.२८) में इस प्रकार प्रस्तुत की गई है : द्रव्ययज्ञास्तपो यज्ञा योगयज्ञास्तथापरे । स्वाध्याय-ज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।। अर्थात्, तीक्ष्ण व्रत का आचरण करने वाले यति कोई द्रव्य रूप, कोई तप रूप, कोई योग रूप, कोई स्वाध्याय रूप और कोई ज्ञान रूप यज्ञ किया करते हैं। इसी प्रसंग में पाखिर (४.३२-३) में कहा गया है : एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान् विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।। श्रेयान् द्रव्यभयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप । सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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