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DHARMA EVAM BADALATE HUE MULYA
291 दूसरी ओर, निवृत्ति-मार्गी जैन आचार्य समन्तमद् स्वामी की निम्नोद्धृत स्तुति को हम देख सकते हैं, जिसमें उपर्युक्त प्रवृत्ति मार्ग को त्याज्य बताया गया है (स्वयम्भूस्तोत्र, ४६) :
अपत्यवित्तोत्तरलोकतष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते ।
भवान्पुनर्जन्म-जरा-जिहासया त्रयीं प्रवृति समधीरवारुणत् ।। अर्थात्, कितने ही तपस्वी जन संतान, धन तथा परलोक की तृष्णा के वशीभूत होकर कर्मकाण्ड में रत रहते हैं। परन्तु आप समभावी हैं एवं प्रापने पुनर्जन्म एवं जरा को दूर करने की इच्छा से मन, वचन तथा काय-इन तीनों की प्रवृत्ति को रोका है।
हमने ऊपर कुछ सांसारिक मूल्यों की चर्चा की। इन मूल्यों का वर्गीकरण अर्थ और काम के रूप में भी किया जाता है । धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष ये चार पुरुषार्थ हैं । इनमें मोक्ष परम पुरुषार्थ है, तथा धर्म उस परम पुरुषार्थ तक पहुँचने का मार्ग है । ऐसे तो अर्थ एवं काम का प्राधार भी धर्म ही है, क्योंकि धर्म रहित अर्थ एवं काम अन्त में अहितकर ही सिद्ध होते हैं। धर्म भी अर्थ एवं काम के बिना पनप नहीं सकता। इस अर्थ में धर्म-पुरुषार्थ अर्थ एवं काम का मूल भी है और फल भी। श्रीमद्भगवद्गीता उपयुक्त चारों पुरुषार्थों में सामंजस्य स्थापन करने का प्रयत्न करती है। जैन एवं स्थविरवादी बौद्ध मोक्ष-पुरुषार्थ को ही प्रधानता देते हैं एवं निवृत्तिप्रधान धर्म को ही एकमात्र मोक्षमार्ग मानते हैं । महायानी बौद्धों का मत इस विषय में करीब-करीब गीता जैसा ही है। मोक्ष केवल एक व्यक्तिगत प्रश्न नहीं है. उसका सम्बन्ध समाज के सभी अंगों से है जो अविभाज्य रूप से जुड़े हुए हैं ।
आध्यात्मिक मूल्यों के अन्तर्गत अहिंसा, अपरिग्रह आदि गिनाये जायेंगे, जिनका परम साध्य मोक्ष है, यद्यपि सांसारिक हित की प्राप्ति के लिए भी वे परमावश्यक हैं।
(२) मूल्यों की इस सामान्य चर्चा के बाद अब धर्म के बारे में कुछ विचार करना आवश्यक है। कुछ धर्म ईश्वरवादी हैं, जो ईश्वर को ही विश्व-व्यवस्था के मूल नियन्ता के रूप में मानते हैं। इन धर्मों से भिन्न कुछ ऐसे धर्म भी हैं, जो अपने कर्म-सिद्धान्तों के आधार पर ही विश्वव्यवस्था की व्याख्या करते हैं। इनके मत में कर्मतत्त्व ही चराचर जगत् का नियन्ता है। कुछ ऐसे धर्म भी हैं जो ऐसा एक अद्वैत तत्त्व मानते हैं, जो स्वयं ही उपादान एवं निमित कारण के रूप में चराचर जगत् के मूल में विद्यमान है। आधुनिक चिन्तन इस अन्तिम विचार-धारा के अनुकूल है। ईश्वरवादी धर्म उपास्य सर्वशक्तिमान् ईश्वर के बिना धर्म की कल्पना ही नहीं कर सकते। उसी तरह निरीश्वरवादी, जैसे जैन एवं बौद्ध धर्म, यह समझने में असमर्थ हैं कि ईश्वर कैसे इस विषमता पूर्ण जगत् के कर्ता हो सकते हैं। जड़ जगत् के वैज्ञानिक नियम एवं मनोजगत् के कुछ रहस्यों का प्राधुनिक सफल विश्लेषण हमें तीसरी विचार-धारा की अोर स्वतः आकृष्ट करते हैं। कुछ भी हो, पर समाज-व्यवस्था के लिए भौतिक उन्नति, जिसका समावेश अर्थ एवं काम पुरुषार्थ में किया जा सकता
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