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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. I
एतमेव विदित्वा मुनिर्भवति एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिञ्छन्तः प्रव्रजन्ति । एतद्ध स्म वै तत्पूर्वे विद्वांसः प्रजां न कामयन्ते किं प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्माऽयं लोक इति, ते ह स्म पुत्रैषणायाश्च लोकेषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचयं चरन्ति ।
अर्थात् इस ब्रह्म को ही जान कर मुनि होता है, इसी ब्रह्मलोक की इच्छा से संन्यासी लोग संन्यास ग्रहण करते हैं । यही कारण है कि पहले के ऋषि सन्तति की कामना नहीं करते थे हमें सन्तति से क्या प्रयोजन ? हमारे लिए, यह ब्रह्म ही आत्मा है, लोक है । ऐसे ऋषि पुत्र कामना, वित्त-कामना एवं लोक- कामना से परे होकर भिक्षाटन से जीवन यापन करते हैं ।
इसके विपरीत मीमांसक अपने प्रत्याग सिद्धान्त के पक्ष में निम्नोक्त वाक्य उद्धृत् करते हैं :
(क) जरामयं मतेत् सत्रं यदग्निहोत्रदर्श पौर्णमासी, जरया ह एतस्मात् सत्राद्विमुच्यते, मृत्युना च ( शाबर भाष्य २.४.४) । अर्थात् ये अग्निहोत्र एवं दर्शपौर्णमास शाश्वत यज्ञ हैं । जरा या मृत्यु आने पर ही इन कर्त्तव्यों से पुरुष मुक्त हो सकता है ।
(ख) कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेच्छतं समाः ( ईशावास्योपनिषत् २ ) । अर्थात् विहित कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ। सौ वर्ष तक जीने की कामना करे ।
इन उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों पक्ष अपने-अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए दो भिन्न मार्ग अपनाते रहे । मीमांसक स्वर्ग को ही उच्चतम ध्येय मानते हैं यद्यपि परवर्ती काल में उनका स्वर्ग मोक्ष जैसा ही बन गया । साध्य-भूत मूल्य बदल गया, पर साधन-भूत मूल्य के बारे में नये मत के साथ प्राचीन मत का सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाया । जैन एवं बौद्ध धर्म, जो मोक्षवादी हैं, यज्ञ एवं ब्राह्मण शब्दों की नवीन व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र के हरिकेशीयाध्ययन (४३-४६) एवं यज्ञीयाध्ययन ( १६-३३ ) इस प्रसंग में दृष्टव्य हैं । पालि पिटक के सुतनिपात के ब्राह्मण धम्मिक सुत्त (१६-२६) में पशु-यज्ञों की उत्पत्ति के कारण बताये गये हैं तथा वहीं ( १२ ) चावल, घृत आदि से किये जाने वाले प्राचीन यज्ञों का भी उल्लेख हैं। यज्ञ की नवीन व्याख्या हम माघसुत्त में देखते हैं । धम्मपद के ब्राह्मणवग्ग में ब्राह्मण का स्वरूप बताया गया है । संक्षेप में ऐसा कहा जा सकता है कि प्रधानतया साधनभूत मूल्यों के प्रश्न पर हमारे दार्शनिक सम्प्रदाय इन दो विभागों में बंट गये - ( १ ) कर्मकाण्डी सम्प्रदाय एवं (२) संन्यासी सम्प्रदाय ।
कर्मकाण्डी सम्प्रदाय के उदाहरणार्थ हम दुर्गासप्तशती में भक्त द्वारा देवी को संबोधित निम्नोक्त प्रार्थना को ले सकते हैं :
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि में परमं सुखम् । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
अर्थात्, युझे सौभाग्य दो, आरोग्य दो, उत्कृष्ट सुख दो, जय दो, यश दो, मेरे शत्रुओं का नाश करो ।
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