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________________ 298 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO, I .. (४) अब धर्म एवं मूल्यों के पारस्परिक सम्बन्ध पर कुछ विशेष विचार करना प्रावश्यक है । जिन धर्मों में विश्व के स्रष्टा एवं नियन्ता के रूप में ईश्वर या प्रजापति की कल्पना की जाती है, उन धर्मों में सांसारिक, नैतिक एवं प्राध्यात्मिक सभी मूल्यों का आधार ईश्वर ही हैं। गीता (३.१०-१२) के निम्नोक्त श्लोकों से यह बात स्पष्ट हो जाती है : सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिवष्टकामधुक् ॥ देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।। इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ति यज्ञभाविताः । तैर्दत्तानप्रदायेभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥ अर्थात्, "प्रारम्भ में यज्ञसहित प्रजा की सृष्टि करते हुए ब्रह्मा ने उनसे कहाइस (यज्ञ) के द्वारा तुम्हारी वृद्धि हो-यह तुम्हारी कामधेनु बने । तुम इससे देवताओं को सन्तुष्ट करते रहो, और वे देवता तुम्हें संतुष्ट करते रहें। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को संतुष्ट करते हुए परम श्रेयः प्राप्त कर लो। यज्ञ से संतुष्ट होकर देवता लोग तुम्हारे इच्छित भोग तुम्हें देगे। उन्हीं का दिया हुआ उन्हें वापिस न देकर जो केवल स्वयं उपभोग करता है वह सचमुच चोर है।" देव, मनुष्य, पशु एवं वनस्पति सहित सारे चराचर जगत् को ईश्वर संचालित करते हैं एवं उनके कर्मानुसार उन्हें फल देते हैं। प्रात्मा, पुनर्जन्म एवं कर्म इन ईश्वरवादी धर्मों को भी मान्य हैं । अनीश्वरवादी जैन, बौद्ध आदि धर्मों में प्रात्मा या विज्ञान तत्त्व को ही ईश्वर के सारे अधिकार दे दिये गये हैं। प्रात्मा स्वतंत्र है। कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता वह स्वयं है। प्रात्मा सर्वशक्तिमान् है। सर्वज्ञ बनने की योग्यता भी उसमें है। गीता के उपर्युक्त प्रजापति के स्थान पर जैन धर्म ने अपने प्रादि तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव को अभिषिक्त किया, जो अपने ही प्रयत्नों से सर्वज्ञत्व प्राप्त कर जगत् के प्रथम धर्मप्रवर्तक बने । उनकी स्तुति करते हुए जैनाचार्य स्वामी समन्तभद्र कहते हैं :(स्वयम्भूस्तोत्र, १, २, ५): स्वयम्भुवा भूतहितेन भूतले समंजस-ज्ञान-विभूति-चक्षुषा । विराजितं येन विधुन्वता तमः क्षपाकरेणेव गुणोत्करे: करैः ।।१।। प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषूः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवर : ॥२॥ (पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः पंक्ति ३, श्लोक ५) अर्थात, “(वह नाभिनन्दन श्री ऋषभदेव मेरे अन्तःकरण को पवित्र करें), जो स्वयम्भू थे (अर्थात् जो बिना किसी दूसरे के उपदेश के प्रात्म-विकास को प्राप्त हुए थे), जो प्राणियों के हित के लिए भूमण्डल पर सम्यक् ज्ञान की विभूति रूप नेत्र के धारक थे और अपने गुणसमूह रूप किरणों से अज्ञानांधकार को दूर करते हुए पृथ्वीतल पर ऐसे शोभायमान थे जैसे कि अपनी प्रकाशकत्वादिगुणविशिष्ट किरणों से रात्रि के अन्धकार को दूर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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