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________________ DHARMA AUR TATTVA 287 सामाजिक धर्म में मूल आधार बुद्धि, समझदारी और विवेक का है। अलबत्ता, इस आधार को दृढ़ बनाने में श्रद्धा का बल काम तो करता ही है । उपासना और पन्थधर्मका यदि बहुत विकास हो भी तो वह केवल दूसरे पन्थ के प्रति सहिष्णुता अथवा तटस्थता धारण करने की सीमा तक ही होता है, परन्तु सामाजिक धर्म जब अपने सही अर्थ में विकसित होता है तब वह पंथ, जाति, देश और वर्ण के भेदों को भी मिटा डालता है। जिस प्रकार उपासना और पन्थधर्म मानवजीवन का एक उज्ज्वल पहलू है उसी प्रकार सामाजिक धर्म भी उसका दूसरा उज्ज्वल पहलू है । इन दोनों पहलुओं के प्राधार ही सामुदायिक जीवन तृप्ति का अनुभव करता है। सामाजिक धर्म की जो मूल नीव है वह उपासना अथवा पंथधर्म की विरोधी नहीं है; उल्टा, वह उसके उज्ज्वल अंग को अधिक समुज्ज्वल बनाती है । धर्म का तीसरा पहलू आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक धर्म का उद्गम जीव में जब अपने सत्य स्वरूप की जिज्ञासा और उसकी अभीप्सा जगती है तब होता है । जब ऐसा उद्गम होता है तब वह जीव परमात्मा अथवा वीतराग जैसे अत्यन्त विशुद्ध आदर्श की ओर अभिमुख होता है । यह अभिमुखता ही उसे अपने आपका अन्तनिरीक्षण करने के लिए सतत प्रेरणा देती रहती है, जिसके कारण यह आध्यात्मिक जीव अपने किसी भी दोष अथवा मल को सहन नहीं कर सकता और उसके निवारण की दिशा में निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। आध्यात्मिक धर्म की इस यात्रा का प्रेरक बल है श्रद्धा और विवेकबुद्धि अर्थात् प्रज्ञा का समत्व । इस यात्रा में श्रद्धा जीव को सन्मार्ग पर टिकाये रखती है और प्रज्ञा उसे उन्मार्ग में जाने से रोकती है। यह स्थिति ही श्रद्धा और प्रज्ञा की भूमिका है । जैसे-जैसे श्रद्धा और प्रज्ञा की भूमिका विकसित होती जाती है, वैसे-वैसे जीव के मूलगत शुद्ध स्वरूप का अधिकाधिक आविर्भाव होता जाता है। तब ऐसे आध्यात्मिक धर्म में सत्य, अहिंसा आदि सद्गुणों का स्वतः विकास होने लगता है। आध्यात्मिक धर्म साम्प्रदायिक अथवा सामाजिक धर्म की भाँति सामुदायिक नहीं है। वह है तो व्यक्तिगत, परन्तु यह साम्प्रदायिक और सामाजिक दोनों धर्मों को उज्ज्वल करता है। एक प्रकार से देखें तो प्राध्यात्मिक धर्म का इन दोनों धर्मों के साथ कोई विरोध नहीं है, तो दूसरी ओर उसका इन धर्मों के साथ कभी-कभी विरोध भी पैदा होता है । परन्तु आध्यात्मिक धर्म की विशेषता यह है कि वैसे विरोध को कालक्रम से दूर करके यह उसमें से मानवजाति के लिए एक नया ही रसायन पैदा करता है और साम्प्रदायिक धर्म के छोटे-बड़े चौकों को भेदकर सामाजिक धर्म की संकुचित सीमाओं को विशाल बनाता है । इसीलिए हम देखते हैं कि मूलत: व्यक्तिगत होने पर भी यह आध्यात्मिक धर्म मानवजाति के लिये सदा आशीर्वाद रूप ही रहा है । इस प्रकार धर्म के इन तीन पहलुओं के द्वारा मानवधर्म की समग्र प्राकृति अंकित हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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