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________________ 286 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. I ओर मोड़ा। इसके फलस्वरूप मानवजाति परलोकलक्षी एवं श्रद्धाजीवी साम्प्रदायिक धर्म की भूमिकामेंसे आगे बढ़कर प्रत्यक्षगम्य एवं इहलोकलक्षी सामाजिक धर्म की भूमिका को सविशेष समझने के लिए प्रेरित हुई । समाजधर्म के बाह्यनियम देश एवं कालभेद से बदलते रहते हैं, परन्तु उन नियमों का जीवानुभूत तत्त्व तो प्रेम अथवा अहिंसा का बीज ही है। इस बीज का पोषण श्रद्धा से ही होता है, परन्तु उसमें माता की-सी सँभाल रखने वाले विवेकरूपी पोषक तत्त्व की विशेष अपेक्षा रहती है। इस समय सब देशों में जैसे समाजलक्षी नियम हैं वैसे ही पहले समय में भी थे। भारत में वैसे नियमों का दिग्दर्शक विशाल साहित्य उपलब्ध भी है । गौतम धर्मसूत्र और मनुस्मृति जैसे स्मृतिग्रन्थ इसके निदर्शन हैं। चार वर्ण और चार आश्रम के ढांचे में उन ग्रन्थों में उस समय तक के विकसित मानव धर्म का निरूपण किया है । उनमें जैसे जीवनव्यवसाय की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों को सुसंवादी बनाने के नियम हैं. वैसे ही व्यक्तिगत जीवन को प्राद्यन्त सुसंवादी बनाने के भी विधान हैं। इजिप्त, यूनान तथा अन्य प्राचीन सभ्यता वाले देशों में भी इसी से मिलती-जुलती समाजधर्म की व्यवस्था थी। आज जैसे-जैसे विश्व समीप आता गया, वैसेवैसे मानवसमाज के लिए शान्तिपूर्वक जीने के नये नियम भी बनते गये और वे मान्य भी होते रहे । यह एक सामाजिक धर्म का आशीर्वाद रूप बाह्य-देखा जा सके वैसापहलू है, परन्तु वास्तव में उसका मूल तो मानव के चित्त में अविभाज्य एवं सहजसिद्ध है। ___ जब मनु अनेकविध वर्ण और पाश्रम-विषयक व्यावहारिक नियमों का वर्णन करते हैं तब वे उस अान्तरिक मूलगत धर्म के स्वरूप को तनिक भी नहीं भूलते। इसीलिए वे मनुस्मृति में अहिंसा, सत्य आदि दस प्रकार के धर्म के रूप में अथवा सत्पुरुष के विवेक के रूप में उस आन्तरिक धर्म का भी सूचन करते हैं। जैन, बौद्ध आदि अनेक श्रमणधर्म भी अस्तित्व में प्राते गये और उनका विकास होता गया। उन्होंने यद्यपि समाज के सभी स्तरों को लक्ष में रखकर मनु आदि स्मृतिकारों की भांति सामाजिक धर्मों का वर्णन तो नहीं किया, परन्तु उन धर्मों के अन्तःप्राणतुल्य अवर अथवा प्रेम धर्म का निरूपण करने और उसका विकास करने में उनका अपेक्षाकृत अधिक योगदान रहा है। धर्म के पहले पहलू के रूप में निरूपित उपासना अथवा पन्थधर्म के तथा दूसरे पहलू इस सामाजिक धर्म के बीच जो अन्तर है वह खास उल्लेखनीय और ज्ञातव्य है। पहला पन्थधर्म मुख्यतया परलोकलक्षी एवं अनीन्द्रिय तत्त्व की किसी-न-किसी प्रकार की श्रद्धा पर स्थापित होता है और टिकता है, जबकि इस सामाजिक धर्म की रचना मुख्यतया दृश्य इहलोक को लक्ष में रखकर हुई है। उपासना और पन्थधर्म तो उस-उस धर्म के अनुयायी तक ही मर्यादित होते हैं, जबकि सामाजिक धर्म विभिन्न जातियों और लोगों को भी एक-सा मान्य होता है । उपासना और पन्थधर्म में बुद्धि एवं ज्ञानशक्ति अवश्य सहायता करती है, परन्तु उसका मूल आधार श्रद्धा है, जब कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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