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________________ 276 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1 आधार पर ही. परिशीलन करना आवश्यक है । इसके बिना विचारणीय प्रश्न में उत्पन्न होने वाली उलझनें सुलझ नहीं सकतीं। ३. ऐसा अवलोकन और चिन्तन करते समय तथा ग्रन्थों के नोट्स बनाते समय जिस प्रकार तुलना और इतिहास की दृष्टि आवश्यक है उसी प्रकार उस अवलोकनचिन्तन आदि में पन्थगत संकुचित पूर्वाग्रहों से मुक्ति भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। ___ यदि कम से कम इतनी तैयारी के साथ दार्शनिक संशोधन हो तो भारतीय दर्शनों की उपलब्ध सामग्री इतनी अधिक विशाल और अर्थपूर्ण है कि उसके आधार पर किया गया संशोधन आज की नयी दुनिया के नवजिज्ञासुओं को भी पर्याप्त मात्रा में सन्तुष्ट कर सकता है और साथ ही भारतीय चिन्तकों की गम्भीर तपश्चर्या के प्रति चाहे जिस व्यक्ति का बहुमान उत्पन्न कर सकता है, ऐसा मेरा पूर्ण और पक्का विश्वास है। दार्शनिकों के विचार-चिन्तन के लिए तत्वज्ञान से सम्बद्ध एकाध मुद्दे की भी मैं यहाँ चर्चा करना चाहता हूँ । वह मुद्दा ज्ञान-प्रक्रिया के बारे में है। भारतीय परम्परामों में लौकिक-लोकोत्तर, व्यवहार-निश्चय, संवृति-परमार्थ, माया-परमार्थ, परिकल्पित-परिनिष्पन्न जैसे शब्दयुगल प्रसिद्ध हैं। इन सब युगलों में एक भाव समान है और वह है स्थूल से सूक्ष्म की ओर विचार प्रगति । जैन परिभाषा में करें तो द्रव्य से भाव की ओर प्रगति । यह प्रगति विचार और प्राचार दोनों क्षेत्रों में मानसिक एवं आध्यात्मिक विकासक्रम के आधार पर और उसी के अनुपात में जो वस्तु सामान्यतः सर्वसाधारणगम्य हो अथवा सर्वसाधारणगम्य हो सके वह लौकिक प्रदेश में पाती है। इससे उल्टा, जो वस्तु सर्वसाधारणगम्य न हो और फिर भी विशिष्ट अधिकारी व्यक्ति को अथवा व्यक्तियों को ही गम्य हो वह लोकोत्तर कहलाती है । यही भाव, एक अथवा दूसरे रूप में, इतर शब्दयुगलों में निरूपित है । मानवजीवन का विकास देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वप्रथम लौकिक भूमिका की रचना होती है और उसमें प्रगति होने पर बाद में लोकोत्तर भूमिका की स्थापना होती है इसीलिए भाषा में भी हम देखते हैं कि जो शब्द लौकिक विचार-आचार में सर्वविदित होते हैं उनमें से बहुत से कालक्रम से लोकोत्तर विचार-आचार के बोधक भी बन जाते हैं। यज्ञ, प्रत्यक्ष जैसे शब्द, जो व्यवहारभूमि में प्रचलित थे और हैं, वे ही कालक्रम से ज्ञान-यज्ञ, ध्यानयज्ञ, परमप्रत्यक्ष, योगिप्रत्यक्ष जैसे लोकोत्तर अर्थ में भी रुढ़ ___ लौकिक और व्यावहारिक भूमिका की अपेक्षा लोकोत्तर और पारमार्थिक भूमिका की प्रतिष्ठा अत्यन्त उच्च कक्षा की मानी गई है। लौकिक में से लोकोत्तर में क्रमिक संक्रम तो प्रसिद्ध है, परन्तु कभी-कभी लोकोत्तर और पारमार्थिक भूमिका की प्रतिष्ठा रखने वाले शब्द भी, उस प्रतिष्ठा के साथ ही, लौकिक और व्यावहारिक भूमिका में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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