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DHARMA AUR TATTVA
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जिस समय जिस समाज में जिस ध्येय की मुख्य प्रतिष्ठा होती है उस समय उस समाज में मुख्य चिन्तक और प्रवर्तक उस ध्येय के साथ अपने उपदेश का सम्बन्ध जोड़ दे यह स्वाभाविक है। इसीलिए स्वर्ग एवं मोक्ष के ध्येय की प्रतिष्ठा होने के कारण प्रत्येक दर्शन ने अपना सम्बन्ध उस ध्येय के साथ जोड़ दिया, परन्तु अधिकांशतः अभ्यासी और साम्प्रदायिक व्यक्ति यह बात सोचना प्रायः भूल गये कि यदि किसी दर्शन का तत्त्वज्ञान मोक्षसाधक हो तो उसके विरोधी प्रतीत होने वाले तत्त्वज्ञान क्या मोक्षसाधक नहीं ?
इससे 'तत्त्वज्ञान' पद का जो अर्थ मैंने ऊपर सूचित किया है उस अर्थ को लेकर यदि हम विचार करें तो हमें ज्ञात होगा कि प्रत्येक प्रामाणिक चिन्तक एवं प्रवर्तक का तत्त्वज्ञान उसकी विचारसीमामें यथावत् हैं और सब मिलकर के एक दूसरे के पूरक भी हैं । ये सब विशाल तत्त्वज्ञान के अंश-रूप होने से अज्ञाननिवारक हैं तथा सत्य ज्ञान की दिशा में ले पाते हैं । इस दृष्टि से वे निःश्रेयस् सिद्धि के उपाय भी हो सकते हैं।
__इस प्रकार विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि दर्शन के सच्चे अभ्यासी को अपने अभ्यास में तुलना एवं इतिहास का दृष्टिबिन्दु रख करके ही प्रागे बढ़ना चाहिए। ऐतिहासिक दृष्टिविन्दु इसलिए आवश्यक है कि एक-एक दर्शन का विकास जिस क्रम से हुअा हो वह समझ में आ सके तथा इतर दर्शनों के साथका सम्बन्ध भी अवगत हो सके । तुलना दृष्टि इसलिए आवश्यक है कि उससे दूसरे को गलत समझने के भ्रम से बचा जा सकता है। दूसरे के द्वारा किये गये प्रतिवादों का मूल्यांकन करने में भी तुलना एवं इतिहास की दृष्टि उपकारक होती है। इसलिये मेरी तो ऐसी पक्की धारणा है कि प्रत्येक शास्त्र के अभ्यासीकी भांति दर्शनशास्त्र के अभ्यासी को भी अभ्यास के केन्द्र में तुलना और इतिहास की दृष्टि अवश्य रखनी चाहिये ।
. पाठशालाओं में प्राचीन प्रणालिका के असुसार तथा कालेज विद्यालयों में नवीन प्रणालिका के अमुसार अध्ययन करने वाले अभ्यासी पागे जाकर दार्शनिक प्रश्नों के ऊपर संशोधन करने के लिए प्रेरित होते हैं। अधिकांशतः वैसे संशोधन बहुत छिछले और मात्र वर्णनात्मक अथवा संग्रहात्मक देखे जाते हैं। इस कमी का एक कारण, मेरे अभिप्राय के अनुसार, यह भी है कि संशोधनकर्ता योग्य रूप से अध्ययन-वाचन नहीं करते और एकांगी बन जाते हैं। मौलिकता से शून्य संशोधन प्राय: निरर्थक और पुनरुक्ति रूप ही होते हैं। भारतीय दर्शनों की किसी भी एक शाखा अथवा किसी भी एक दर्शन के किसी एक मुद्दे पर मौलिक संशोधन करना हो तो, मेरी दृष्टि से, कम से कम निम्नांकित तैयारी का होना आवश्यक है :
१. प्रत्येक दर्शन के, विशेषतया उद्दिष्ट दर्शन के, ग्रन्थों का मूल से लेकर ही पठन-मनन होना चाहिए; यहाँ तक कि उसके प्राचीनतम उपलब्ध मूल से लेकर उसके भाष्य, व्याख्या आदि उत्तरकालीन सब प्रमुख ग्रन्थों का मनन और धीरजपूर्वक अवलोकन करना चाहिए।
२. संशोधन का मुख्य विषय चाहे जिस दर्शन का हो, परन्तु इतर दर्शनों के महत्त्वपूर्ण और संशोधन के साथ सम्बद्ध साहित्य का, हो सके वहाँ तक मूल ग्रन्थों के
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