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________________ 274 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. I द्वारा प्राप्त करना चाहिये । ऐसा न होने से बहुत बार दर्शन का अभ्यासी इतर दर्शनों का यथावत् एवं तटस्थ मूल्यांकन करने के बदले एकांगी दृष्टि का शिकार हो जाता है और अपने अभिप्रेत मुख्य दर्शन के मन्तव्यों से भिन्न मन्तब्यों की पूरी समझ के बिना ही, अवगणना करना है फलतः वैसे अभ्यासी के भीतर वादकथा के स्थान में अल्प एवं विलक्षण का प्रवेश, अज्ञात रूप से भी हो जाता है । यहाँ तककी चर्चा अब हमको 'तत्त्वज्ञान' पदका अर्थ समझने के लिए प्रेरित करती है | दर्शनों में 'तत्त्वज्ञान' पदका सामान्य अर्थ ऐसा रूढ़ हो गया है कि जिसके कारण दर्शन का अभ्यासी या चिन्तक अपने-अपने दर्शन में प्रतिपादित तत्त्व ही यथावत् एवं परिपूर्ण हैं ऐसा मानने लगता है । उदाहरणार्थ, न्याय-वैशेषिक दर्शनका अभ्यासी छः या सात पदार्थ अथवा सोलह पदार्थ जो अनुक्रम से वैशेषिक और न्यायसूत्र में निरूपित हैं और उन तत्त्वों का जिस रूप में एवं जिस प्रकार से निरूपण हुआ है उसी को परिपूर्ण मानकर भौर उन्हीं के ज्ञान को पारमार्थिक समझकर उनका सम्बन्ध अभ्युदय एवं निःश्रेयस् के साथ जोड़ता है । वह ऐसा मानने लगता है कि इन तत्त्वों का यथावत् ज्ञान हो जाय तो निःश्रेयस् सिद्ध होगा ही, इसी प्रकार सांख्य योग, जैन-बौद्ध और मीमांसाद्वय के बारे में भी कहा जा सकता है । प्रत्येक दर्शन का सूत्रपात मोक्ष के ध्येय से हुआ है और इस ध्येय की सिद्धि के अनन्य उपाय के तौर पर तत्तद् दर्शन के ही प्रमेयों का यथावत् ज्ञान पर्याप्त समझा जाता है । एक ही ध्येय की सिद्धि के उपाय रूप उस-उस दर्शन के मन्तव्यों अथवा प्रमेयों का एकमात्र यथावत् ज्ञान ही यदि उस ध्येय को सिद्ध करने में पर्याप्त हो तो इस परसे ऐसा फलित होगा कि एक दर्शन का तत्त्वज्ञान यथावत् होने से पूर्ण है और इतर दर्शनों के तत्त्वों का ज्ञान या तो भ्रान्त है या फिर सर्वथा नगण्य है । यह फलितार्थं 'तत्त्वज्ञान' पद के रूढ़ अर्थ की समझमें से स्वत: उत्पन्न होता है । इसीलिए हम दार्शनिक अभ्यास एवं चिन्तन को पन्थ अथवा चौके की संकुचित सीमा में आबद्ध देखते हैं । दार्शनिक अभ्यास से जिस उज्ज्वल एवं उदार प्रकाश की आशा रखी जाती है और जो सम्भवतः निःश्रेयस् की दिशा का एक प्राथमिक सोपान बनने की क्षमता रखता है, वही अभ्यास और चिन्तन प्रभ्यासी को संकुचित कटघरे में बन्द करके तमिस्र के गर्भ की ओर ले जाता है । अत: 'तत्व' पद के तात्पर्य का हमें विचार करना चाहिए । मेरी समझ में 'तत्त्व' पद का अर्थ इतना ही होना चाहिए कि तत्तद् दर्शनके मूल चिन्तक अथवा प्रवर्तक ने जिन प्रमेयों का जिस रूप में ज्ञान प्राप्त किया था उन प्रमेयों को उसने उसी रूप में निरूपित करने का प्रयत्न किया। वह निरूपण उस चिन्तक अथवा प्रवर्तक की विचारसीमा तक तो यथावत् है, परन्तु उसमें विचार के दूसरे प्रवाहों अथवा विन्दुनों का समावेश न होने से वह उतनी हद तक, एक देशीय है; और वैसे एकदेशीय ज्ञान को तत्त्वज्ञान कहने का अर्थ इतना ही है कि उस उस चिन्तक अथवा प्रवर्तक ने जो कुछ जाना- सोचा उसका प्रामाणिक रूपसे निरूपण किया और निरूपण में कोई विप्रतारण अथवा विप्रलम्भ की दृष्टि थी ही नहीं । जो कुछ समझ में आया उसीको, और वह भी निःस्वार्थ भाव से, अन्य जिज्ञासुत्रों के बोध के लिए ग्रथित किया तथा उसका सम्बन्ध अभ्युदय एवं निःश्रेयस् के साथ जोड़ा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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