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DHARMA AUR TATTVA
273 को स्पष्ट रूप से स्थापित करने में जब कभी कार्यकारणभाव आदि सिद्धान्तों के विकल्पित ज्ञान की प्रावश्यकता हुई है, तब उन्होंने न्याय-वैशेषिक दर्शन की इस विचारसमृद्धि की ओर ही नजर घुमाई है । कुमारिल, प्रभाकर और वाचस्पति मिश्र जैसे विद्वान् अपनीअपनी मीमांसा पद की व्याख्यानों में अपने मन्तव्य सबल रूप से उपस्थित कर सके हैं इसका भी आधार यही है । श्रीहर्ष ने खण्डनखण्डकाव्य में अथवा मधुसूदन ने प्रतिसिद्धि आदि में जो केवलाद्वैत की स्थापना की है और उस स्थापना में जो बल देखा जाता है वह बल उन्होंने पाया कहाँ से? इसी प्रकार रामानुज ने अथवा उनके अनुयायियों ने विशिष्टाद्वैत की जो सबल स्थापना की है उसका बल उनको कहाँ से मिला है ? उपाध्याय यशोविजयजी ने जैन तर्क और अनेकान्त दृष्टि की स्थापना में जो कौशल दिखलाया है वह किसके आधार पर ? इन और इनके जैसे दूसरे प्रश्नों का उत्तर एक ही है और वह यह कि उन सबने न्याय-वैशेषिक दर्शन के मूल ग्रन्थ और उन पर की उत्तरोत्तर अधिकाधिक सूक्ष्म और सूक्ष्मतर व्याख्याओं का गम्भीर अध्ययन जितने परिमाण में किया उतने परिमाण में उनके निरूपण उस-उस समय में प्रतिष्ठित हुए।
मेरी यह विचारसरणी यदि ठीक हो तो ऐसा सूचित करना आवश्यक प्रतीत होता है कि इस समय दार्शनिक अध्ययन-अध्यापन की जो प्रणाली ढीली-ढाली नीव पर चल रही है और जिस प्रणाली का अवलम्बन लेकर प्रति वर्ष तत्तद दर्शन के अनेक विद्यार्थी उपाधि प्राप्त करते हैं, और फिर भी चिन्तन-मनन की दृष्टि से कोई ठोस एवं मौलिक कार्य नहीं दीखता, उसमें आमूलचूल परिवर्तन की अनिवार्य आवश्यकता है । यह परिवर्तन मेरी दृष्टि से जैसा होना चाहिये उसकी भी संक्षिप्त रूपरेखा यहाँ सूचित करू तो यह अनुचित नहीं समझी जायगी।
___ भारतीय दर्शनों में से किसी भी एक दर्शन का मुख्य रूप से अध्ययन करना हो तो सबसे पहले जिस प्रकार संस्कृत भाषा एवं साहित्य का पर्याप्त ज्ञान आवश्यक है उसी प्रकार न्याय-वैशेषिक दर्शन के मूल एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अथवा उस दर्शन के सर्वसंग्राही किसी एक ग्रन्थ का तलस्पर्शी अध्ययन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। वह एक ग्रन्थ भी ऐसा होना चाहिए जिसमें उक्त सात मुद्दों के बारे में विशद चर्चा आती हो तथा न्यायवैशेषिक की सभी परिभाषाएँ असन्दिग्ध भाव से समझ में आ जायँ उस प्रकार जिसमें उनकी चर्चा हो। इतनी चीज तैयार होने के उपरान्त अभिप्रेत एक दर्शन का अभ्यासी भले ही उस दर्शन का क्रमिक अभ्यास शुरू करे, परन्तु वह अभ्यास किसी भी प्रकार से एकांगी न रहे इसके लिए यह आवश्यक है कि वह अभ्यासी साथ ही साथ अपने मुख्य विषय से भिन्न इतर भारतीय दर्शनों का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उस-उस दर्शन के परिचायक एवं मौलिक ऐसे कम से कम एक-एक ग्रन्थ का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करे, क्योंकि भारत में दार्शनिक चिन्तन इस प्रकार उत्तरोत्तर आगे बढ़ा है कि उसमें किसी एक दर्शन की परम्परा को इतर दर्शन की परम्परा से अलग किया ही नहीं जा सकता । अतएव अपने अभिप्रेत दर्शन का अर्थ समझने के लिए तथा उसमें किये गये इतर दर्शनों के मन्तव्यों के प्रतिवाद का मूल्यांकन करने के लिये यह आवश्यक है कि मुख्य विषय के रूप में स्वीकृत दर्शन के अतिरिक्त इतर दर्शनों का ज्ञान भी उन्हीं के ग्रन्थों के
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