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272 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. I यदि कहीं उपलब्ध होनी भी है तो वह न्याय-वैशेषिक की परम्परा के प्राधार पर ही विकसित हुई है। लक्ष्यलक्षणभाव के विचार में अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव जैसे दोषों का स्पष्ट निरूपण और तद्विषयक ग्रन्थों की रचना भी न्याय-वैशेषिक साहित्य की एक दूसरी विशेषता है।
यद्यपि कणाद सूत्रों में अनुभाव की चर्चा है, परन्तु इस विषय में मौलिक और अपनी कही जा सके वैसी विशेषता तो न्यायसूत्रों की ही है। स्वार्थ एवं परार्थानुमान - न्यायवाक्य, उसका साद्गुण्य-वैगुण्य अथवा सद्धेतु-हेत्वाभास, छल, जाति निग्रहस्थान प्रादि की विशद और मौलिक चर्चा भी न्यायसूत्रों की ही विशेषता है।
___इसी प्रकार परीक्षापद्धति से लेकर प्रापाण्य-अप्रमाण्य की समीक्षा तक के प्रवशिष्ट चार मुद्दे भी जिस स्पष्टता के साथ न्यायसूत्रों में निरूपित हैं उस स्पष्टता के साथ दूसरे किसी दर्शनसूत्र में सर्वप्रथम उपलब्ध नहीं होते। इस प्रकार न्यायवैशेषिक दोनों दर्शनों ने अलग-अलग और संयुक्त रूप से जिन उक्त दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा की है और इन दोनों दर्शनों के व्याख्याकारों ने अठारहवीं-उन्नीसवीं शती तक जिनका विकास अपने-अपने ग्रन्थों में किया है, उन्हीं का उपयोग दूसरे दार्शनिक अपने-अपने ढंग से करते रहे हैं। सांख्य एवं योगदर्शन के अभ्यासी को यदि इन सिद्धान्तों का प्रामाणिक और पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना हो तो वह न्याय-वैशेषिक दर्शन के प्रामाणिक अभ्यास के बिना कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार बौद्ध और जैन दर्शनों में जबसे तर्क और न्याय की नीव पड़ी और आगे जाकर उन दर्शनों में उसका जो विकास हुआ उसमें से यदि न्याय-वैशेशिक दर्शन के द्वारा किए गये इन सिद्धान्तों के चिन्तक को कम कर दें तो उनका ताकिक आधार समझ में ही नहीं पा सकता। बौद्धोंने भले ही क्षणिकत्व, वाह्यार्थशून्यत्व और शून्यवाद जैसे मन्तव्यों को स्पष्ट करने तथा उनका विकास साधने के लिए कार्यकारणभाव आदि सिद्धान्तों की चर्चा में अपनी ओर से भी सूक्ष्म विचार का योग दिया हो और इसी प्रकार भले ही जैन ताकिकों ने परिणामिनित्यत्व एवं अनेकान्तदृष्टि को स्पष्ट करने की तथा उनका विकास करने की दृष्टि से इन सिद्धान्तों की विशद चर्चा की हो और उसमें अपना भी योग प्रदान किया हो (और वस्तुत: इन दोनों दर्शनों ने ऐसा प्रदान विशेष रूप से किया भी है), तो भी उनका मूल प्राधार तो न्याय-वैशेषिक दर्शन की विचार पद्धति ही है।
पूर्वमीमांसा के सूत्रकार जैमिनि और उत्तरमीमांसा के सूत्रकार बादरायण का विचारक्षेत्र मुख्यतया अनुक्रम से यज्ञकर्म और ब्रह्मस्वरूप का निरूपण है। स्वाभाविक रूप से ही उनको अपने-अपने मन्तव्य उपस्थित करने में कार्यकारणभाव आदि सिद्धान्तों का प्रश्रय लेना पड़ा है, परन्तु उन्होंने इन सिद्धान्तों के विषय में अपने सूत्रों में कोई विशेष चर्चा नहीं की है। अब, जो व्यक्ति इन दोनों मीमांसाओं का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हो और वह भी यथार्थ रूप से, उसे उक्त सात सिद्धान्तों का यथावत् परिचय अनिवार्य रूप से करना ही चाहिए। इन सूत्रों के भाष्यकारों को तथा उस-उस भाष्य के उत्तरवर्ती व्याख्याकारों को दर्शनान्तरों के वादों का प्रतिवाद करने में तथा अपने वाद
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