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DHARMA AUR TATTVA
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प्रविष्ट हो जाते हैं और वैसे प्रवेश के साथ ही तत्त्वचिन्तन एक नया मोड़ लेता है। यह कैसे होता है इसका एक दृष्टान्त प्रस्तुत मुद्दे के द्वारा उपस्थित करने का मैं यहाँ प्रयत्न करूंगा।
न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, जैन और पूर्वमीमांसक जैसे दर्शन जड़-चेतन उभय की वास्तविकता में मानते हैं। इनका ज्ञान लौकिक भूमिका वाले को भले ही अस्पष्ट, अपूर्ण और एकांगी हो, परन्तु लोकोत्तर भूमिकावाले को इन्हीं जड़-चेतन उभय पदार्थों का स्पष्ट, पूर्ण और सर्वांगीण ज्ञान होता है। ज्ञान में तारतम्य है, परन्तु उससे इन दोनों तत्त्वों के अस्तित्व में कोई तारतम्य नहीं है । जड़ एवं चेतन दोनों तत्त्वों का अस्तित्व अपने-अपने स्वरूप की दृष्टि से त्रिकालाबाधित माना जाता है। परन्तु इससे उल्टा बौद्ध एवं वेदान्त परम्पराओं की कुछ शाखाओं में माना जाता हैं। योगाचार और शून्यवाद तथा केवलाद्वैत ये तीनों परम्पराएँ तो इस विषय में इतनी प्रसिद्ध हैं कि उनका संकेतभर करना पर्याप्त होगा।
योगाचार और शून्यवाद इन महायानी शाखाओं के मन्तव्य से सर्वथा भिन्न मन्तव्य रखनेवाली बौद्ध परम्परा की ही थेरवाद, सर्वास्तिवाद और सौत्रान्तिक जैसी शाखाएँ हैं । इसी प्रकार विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत जैसी वेदान्त परम्पराएँ केवलाद्वैती परम्परा से सर्वथा भिन्न मन्तव्य रखती हैं । मन्तव्य का यह भेद बाहार्य का अस्तित्व वास्तविक मानना अथवा अज्ञानकल्पित इस पर आधारित है। योगाचार, शून्यवाद और केवलाद्वैत इन तीनों के मन्तव्यों में दूसरा चाहे जो और चाहे जितना मतभेद हो, परन्तु इन तीनों का एक बात में समान मन्तव्य है और वह है : बाह्यार्थ का अस्तित्व वास्तविक नहीं, किन्तु अज्ञानकल्पित है। इस मन्तव्य का प्रस्पष्ट बीज तो कतिपय प्राचीन उपनिषदों के अमुक वाक्यों में तथा बौद्ध पिटक के उपलब्ध कुछ शब्दों में है, परन्तु इस मन्तव्य का स्पष्ट विचार-विस्तार तो इस समय हमें उपलभ्य साहित्य में से योगाचार और शून्यवाद के साहित्य में ही मिलता है। लंकावतार जैसे प्राचीन सत्र. प्रज्ञापारमिता जैसे प्राचीन ग्रन्थ और मध्यमककारिका जैसे दार्शनिक ग्रन्थों के देखने पर यह बात स्पष्ट होती है कि उन ग्रन्थों के रचयिताओं ने बाह्य, इन्द्रियगम्य एवं भेदप्रधान विश्व को अविद्यामूलक और मनोविकल्पप्रसूत माना है । जब अविद्या और मनोविकल्प नष्ट हो जाते हैं तब इस विश्व का कोई अस्तित्व ही नहीं रहता । सच्चा अस्तित्व मनोविकल्प और वाक्प्रपंच से परे होने के कारण निर्विकल्प और निष्प्रपंच है। योगाचार और शून्यवाद ने जो स्थापना की वही स्थापना वेदान्त परम्परा के ब्रह्मतत्त्व के निरूपण में अवतीर्ण हुई। इसीलिए केवलाद्वैत परम्परा में भी ब्रह्मतत्त्व का निर्विकल्प और निष्प्रपंच के रूप में वर्णन हुआ है ।
___ बाह्य और आन्तरिक अथवा जड़ और चेतन इन दोनों तत्त्वों के वास्तविक अस्तित्व के मन्तव्य में से एक ही प्रान्तरिक ज्ञान अथवा चेतनातत्त्व के वास्तविक अस्तित्व का जो मन्तव्य भिन्न-भिन्न दर्शन परम्पराओं में स्थापित एवं चचित हुआ उसका प्रेरक बल कौन सा है, यह भी एक प्रश्न है। इसका उत्तर भारतीय परम्पराओं की प्राचीन सम्पत्ति जैसी योगप्रणाली में से उपलब्ध होता है। सांख्य-योग, जैन और बौद्ध इन तीनों परम्पराओं में योग-विषयक उच्च भूमिका की अमुक मान्यताएँ
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