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________________ GRHASTHA-DHARMA 267 आत्मार्थी को प्रात्मदर्शन का एक अद्वितीय उपाय बतलाना गीता का आशय है। जो चीज हिन्दू धर्मग्रन्थों में छिटफुट दिखाई देती है, उसे गीता ने अनेक रूपों, अनेक शब्दों में, पुनरुक्ति का दोष स्वीकार करके भी, अच्छी तरह स्थापित किया है। वह अद्वितीय उपाय है कर्मफलत्याग ।' कर्ममात्र में कुछ दोष तो है ही, तब कर्मबन्धन में से अर्थात् दोषस्पर्श में से मुक्ति कैसे ? इसके उत्तर में गाधीजी उसी प्रस्तावना में लिखते हैं"इसका जवाब गीताजी ने निश्चयात्मक शब्दों में दिया है-'निष्काम कर्म से, यज्ञार्थ काम करके, कर्मफलत्याग करके सब कर्मों को कृष्णार्पण करके. अर्थात मन, वचन और काया को ईश्वर में होम करके।" निष्कामता और कर्मफलत्याग ज्ञान एवं भक्ति से उत्पन्न होते हैं। भक्ति अन्धश्रद्धा नहीं है। स्थितप्रज्ञ ही भक्त हो सकता है। ज्ञान प्राप्त करना, भक्त होना ही प्रात्मदर्शन है। आत्मदर्शन उससे भिन्न वस्तु नहीं है। इस प्रसंग में उक्त प्रस्तावना में गांधीजी लिखते हैं-"जैसे रुपये के बदले में जहर खरीदा जा सकता है और अमृत भी लाया जा सकता है, वैसे ज्ञान या भक्ति के बदले बन्धन भी लाया जा सके और मोक्ष भी, यह संभव नहीं है । यहाँ तो साधन और साध्य, बिल्कुल एक नहीं तो लगभग एक ही वस्तु हैं, साधन की पराकाष्ठा जो है वही मोक्ष है और गीता के मोक्ष का अर्थ परमशांति है।" कर्मफलत्याग का अर्थ कर्मत्याग नहीं है। शुष्क ज्ञानी और बाह्याचारी भक्त होना गांधीजी को इष्ट नहीं। हाथ से लोटा तक उठाना भी शुष्क ज्ञानी के लिए कर्मबन्धन है । बाह्याचारी भक्त खाने-पीने प्रादि भोग भोगने के समय ही माला को हाथ से छोड़ता है, चक्की चलाने या रोगी की सेवा शुश्रूषा करने के लिए कभी नहीं छोड़ता। गांधीजी के प्रमुसार ऐसे ज्ञानी और भक्तों को लक्ष्य कर गीताकार ने साफ तौर से कह दिया है-“कर्म बिना किसी ने सिद्धि नहीं पाई। जनकादि भी कर्म द्वारा ज्ञानी हुए। यदि मैं भी आलस्य रहित होकर कर्म न करता रहूँ तो इन लोकों का नाश हो जाय ।" कर्ममात्र बंधन रूप है, यह निर्विवाद है। तब कर्म करते हुए भी मनुष्य बन्धनमुक्त कैसे रहे ? इस पर गांधीजी लिखते हैं-"जहाँ तक मुझे मालूम है, इस समस्या को गीता ने जिस तरह हल किया है वैसे दूसरे किसी भी धर्मग्रन्थ ने नहीं किया है, गीता का कहना है, 'फलासक्ति छोड़ो और कर्म करो'। 'आशा रहित होकर कर्म करो,' 'निष्काम होकर कर्म करो', यह गोता की वह ध्वनि है जो भुलाई नहीं जा सकती। जो कर्म छोड़ता है वह गिरता है। कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता है वह चढ़ता है । फलत्याग का अर्थ यह नहीं है कि परिणाम के सम्बन्ध में लापरवाही रहे। परिणाम और साधन का विचार और उसका ज्ञान अत्यावश्यक है। इतना होने के बाद जो मनष्य परिणाम की इच्छा किये बिना साधन में तन्मय रहता है वह फलत्यागी है।" कर्मानुरूप फल अवश्य मिलता है। उस फल में प्रासक्ति नहीं रखना ही फलत्याग है। फलत्याग में अपरिमित श्रद्धा की परीक्षा है। जो मनुष्य परिणाम का ध्यान करता रहता है वह बहुत बार कर्तव्यभ्रष्ट हो जाता है। संपूर्ण कर्मफलत्यागी द्वारा भौतिक युद्ध हो सकता है या नहीं, इस प्रश्न के बारे में गांधीजी उक्त प्रस्तावना में लिखते हैं---''गीता की शिक्षा को पूर्णरूप से अमल में लाने का ४० वर्ष तक सतत प्रयत्न करने पर मुझे तो नम्रतापूर्वक ऐसा जान पड़ा है कि सत्य और अहिंसा का पूर्णरूप से पालन किये बिना सम्पूर्ण कर्मफलत्याग मनुष्य के लिए असंभव है।" कर्म करने में जो अनिवार्य हिसा होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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