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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1
सेवा में लगे रहना चाहिए ( मनु० २.२३५) । भार्या के प्रति कर्तव्य के प्रसङ्ग में मनुस्मृति में कहा गया है- घर की दीप्ति स्वरूप स्त्रियाँ सन्तानोत्पादनार्थं सम्मान के योग्य हैं, घर में विराजमान लक्ष्मी और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है (मनु० ६.२६) । मनु ने मित्र की अनिवार्यता पर जोर देते हुए उनके ये लक्षण बताये हैं- ध्रुव, वर्धनशील, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, संतोषी, अनुरक्त एवं स्थिर- पराक्रम ( मनु० ७.२०८ - २०९ ) । मनु ने दासवर्ग से विवाद करने का निषेध किया है ( मनु० ४.१८१ ) तथा उन्हें अपनी छाया समझ कर उनके अधिक्षेपों का भी सहन करना उचित माना है ( मनु० ४.१८५) ।
मनुस्मृति में निवृत्ति और प्रबृत्ति पर सूक्ष्मता से विचार किया गया है । इह लोक या पर लोक के सम्बन्ध में किसी कामना वश जो कोई कर्म किया जाय उसे प्रवृत्ति कर्म और ज्ञानपूर्वक निष्काम भाव में जो कर्म किया जाय उसे निवृत्त कर्म कहते हैं । प्रवृत्त कर्मों का भली-भांति अनुष्ठान करके मनुष्य देवताओं के समान हो जाते हैं । निवृत्त कर्म करने से मनुष्य पाँच महाभूतों का भी अतिक्रम कर सकता है - अर्थात् मोक्ष प्राप्त अपने में और अपने को सब प्राणियों ( मनु० १२.८६ - ६१ ) । इस प्रकार मनु
कर लेता है । आत्मयाजी पुरुष सब प्राणियों को में व्याप्त देखता हुआ ब्रह्मत्व लाभ करता है ने निवृत्ति और प्रवृत्ति में समन्वय करने का प्रयत्न किया है । ४. गांधीजी की दृष्टि में गृहस्थ धर्म :
गांधीजी का जीवन जैन साधक श्रीमद्राजचन्द्र टालस्टाय तथा रस्किन से प्रभावित था और भगवान् महावीर, बुद्ध, मनुस्मृति एवं गीता का धर्म तो उन्हें परम्परा से प्राप्त था ही । मनुस्मृति तथा गीता की भाँति उन्होंने भी निवृत्ति और प्रवृत्ति में समन्वय किया । धर्म और अर्थ को दो विरोधी वस्तु वे नहीं मानते थे । अनासक्तियोग की प्रस्तावना में वे लिखते हैं- "व्यापार इत्यादि लौकिक व्यवहार में धर्म नहीं बचाया जा सकता, धर्म को जगह नहीं हो सकती, धर्म का उपयोग केवल मोक्ष के लिए किया जा सकता है । धर्म की जगह धर्मं शोभा देता है और अर्थ की जगह श्रर्थ ।' बहुतों से ऐसा कहते हम सुनते हैं । गीताकार ने इस भ्रम को दूर किया है। उसने मोक्ष और व्यवहार के बीच एसा भेद नहीं रखा है, वरन् व्यवहार में धर्म को उतारा है। जो धर्म व्यवहार में न लाया जा सके वह धर्म नहीं है, मेरी समझ से यह बात गीता में है । गीता के मतानुसार जो कर्म ऐसे हैं कि श्रासक्ति के बिना हो ही न सकें वे सभी त्याज्य हैं । ऐसा सुवर्ण नियम मनुष्य को अनेक धर्म संकटों में से बचाता है । इस मत के अनुसार खुन, झूठ व्यभिचार इत्यादि कर्म अपने ग्राप त्याज्य हो जाते हैं । मानव-जीवन सरल बन जाता है । और सरलता में से शांति उत्पन्न होती है ।" प्रासक्ति के बिना कर्म करने का एकमात्र उपाय है कर्मफलत्याग । आत्मार्थी के लिए प्रात्मदर्शन का एक अद्वितीय उपाय भी वही है । इस प्रसंग में गांधीजी ने उक्त प्रस्तावना में लिखा है - "मनुष्य को ईश्वररूप हुए बिना चैन नहीं पड़ता, शांति नहीं मिलती । ईश्वररूप होने के प्रयत्न का नाम सच्चा और एकमात्र पुरुषार्थ है और यही आत्मदर्शन है । यह प्रात्मदर्शन सब धर्मग्रन्थों का विषय है, वैसे ही गीता का भी है । पर गीताकार ने इस विषय का प्रतिपादन करने के
मतलब,
लिए गीता नहीं रची, वरन
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