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GRHASTHA-DHARMA
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देते हैं । और क्रमशः ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ, तथा संन्यास - इन चार आश्रमों के विधिवत् अनुष्ठान से परम गति की प्राप्ति स्वीकार करते हैं (मनु० ६,८७-८८), पर गृहस्थ - श्राश्रम को वे सर्वश्रेष्ठ मानते हैं । जिस प्रकार सभी नदियाँ और नद समुद्र में प्रांश्रय लेते हैं, उसी प्रकार सभी श्राश्रम वाले गृहस्थ में ही संस्थित होते हैं ( मनु०६, ९० ) । जैसे वायु के सहारे सब जीव जीते हैं, उसी प्रकार गृहस्थ के सहारे सब श्राश्रम जीवित रहते हैं ( मनु० ३, ७७ ) ।
मनुस्मृति में वर्णभेद तथा देश, काल आदि के भेद से गृहस्थ धर्म की विभिन्नता मानी गई है । व्यक्ति की रुचि के अनुसार धर्म की व्यवस्था की गई है । उदाहरणार्थ कोई पंच यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं तो कोई इन्द्रियनिग्रह तथा ब्रह्मज्ञानानुशीलन मात्र से ही गृहस्थ धर्म को चरितार्थं समझते हैं ( मनु० ४.२१-२४) | गृहस्थ जीवन को विविध परिस्थितियों को ध्यान में रख कर ही मनुस्मृति में विविध नियमों का विधान किया गया है । पर इन नियमों का आधारभूत मौलिक तत्त्व भी स्पष्ट रूप से वहीं निर्दिष्ट हैं ।
महावीर और बुद्ध की तरह मनु यह स्वीकार करते हैं कि कामात्मता न प्रशस्ता
( मनु० २.२ ) अर्थात् कर्मफल की इच्छा प्रशस्त नहीं है, पर साथ-साथ यह भी कहते हैंन चैवेहास्य कामता ( मनु० २ २ ) अर्थात् संसार में शुद्ध प्रकामता संभव नहीं । कामना के बिना किसी प्रकार की क्रिया संभव नहीं । अतएव व्रत और यमधर्म का पालन करता हुआ मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष - इन चारों पुरुषार्थ की सिद्धि करता है । उसके लिए चूल्हा,
चक्की,
गृहस्थ को अनिवार्य रूप से कुछ पापकर्म करने पड़ते हैं । झाडू, प्रोखली और जल का घट-ये पाँच पाप के स्थान हैं । इन अनिवार्य पापों से मुक्त होने के निमित्त गृहस्थ के लिए ब्रह्मयज्ञ (प्रध्यापन), पितृयज्ञ ( तर्पण), देवयज्ञ ( हवन करना ), भूतयज्ञ ( बलिवैश्वदेव ) तथा नृयज्ञ ( अतिथियों को भोजन) का मनुने विधान किया है । ( मनु० ३. ६८-७१) । स्वार्थत्याग का अभ्यास ही इन यज्ञों का लक्ष्य है । हिंसा मुक्त जीवन ही आदर्श जीवन है। जीवत यात्रा के लिए यदि हिंसा का श्राश्रय लेना पड़े तो कम से कम हिंसा करने का प्रयत्न करना चाहिए। मनु कहते हैंजीवों को बिना पीड़ित किये अथवा यथासंभव स्वल्प पीड़ित कर जो वृत्ति संभव हो, उसका आश्रय कर विप्र प्रपनी जीवन यात्रा का निर्वाह करे (मनु० ४ . २ ) ।
महावीर और बुद्ध की तरह मनु भी गृहस्थों के लिए यम और नियम का विधान करते हैं । मनु यम को अधिक मौलिक मानते हैं । वे कहते हैं- विद्वान् यमों का सर्वदा सेवन करे । नियमों का नित्य न सेवन करे, यमों का सेवन नहीं करता हुआ केवल नियमों का ही सेवन करने वाला पतित होता है ( मनु० ४. २०४ ) । महर्षि पतंजलि के अनुसार श्रहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम, तथा शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान ये पांच नियम हैं । याज्ञवल्क्य स्मृति ( ३. ३१२-१३ ) आदि ग्रन्थों में यम एवं नियक के भेद अन्य प्रकार से गिनाये गये हैं । भगवान् महावीर तथा
बुद्ध द्वारा प्रतिपादित सदाचार के सभी नियमों का समावेश इनमें किया गया है ।
माता, पिता तथा आचार्य के प्रति गृहस्थ के जब तक ये तीनों जीवित रहें तब तक अन्य धर्म का
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कर्तव्य के बारे में मनु कहते हैंअनुष्ठान न करके नित्य इन्हीं की
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