SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 264 VAISHALI INSTITUTE RESÉARCH BULLETIN NO. I (४) मित्र और साथियों के प्रति आर्यश्रावक के पांच कर्तव्य-दान, प्रियवचन, अर्थचर्या, (इष्टानुष्ठान), समानात्मता, अप्रत्याख्यान अर्थात् मांगने पर किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में ना नहीं कहना। इस प्रकार अनुगृहीत मित्र निम्नोक्त प्रकार से प्रार्य श्रावक के सहायक बनते हैंप्रमादग्रस्त होने पर उसकी रक्षा करते हैं, प्रमादग्रस्त होने पर उसके धनकी रक्षा करते हैं, भय उत्पन्न होने पर उसे शरण देते हैं,प्रापदानों में उसे छोड़ते नहीं, तथा दूसरे भी ऐसे श्रावक का सत्कार करते हैं। (५) दास-कर्म करों के प्रति स्वामी के पाँच कर्तव्य-योग्यता के अनुसार कर्तव्यों का संविभाग, यथासमय भोजन एवं वेतन प्रदान, रुग्ण होने पर उनकी सेवा, उत्तम रसों वाले पदार्थों का प्रदान तथा समय पर अवकाश देना । स्वामी के ऐसे प्राचरण करने पर वे निम्नोक्त प्रकार से उसका प्रत्युपकार करते हैं---स्वामी के जगने के पहले जग जाते हैं, पीछे सोते हैं, चोरी नहीं करते, कर्तव्यों का अच्छी तरह पालन करते हैं तथा स्वामी का यश और कीति फैलाते हैं । (६) श्रमणब्राह्मणों के प्रति प्रार्यश्रावक के पांच कर्तव्य-मैत्रीपूर्ण कायिक कर्म, मैत्रीपूर्ण वाचिक कर्म, मैत्रीपूर्ण मानसिक कर्म, अनावृतद्वारता अर्थात् उनके लिये द्वार सदैव खुला रखना, तथा आहारदान । ___इस प्रकार पूजित होकर वे आर्यश्रावक को निम्नोक्त प्रकार से अनुकम्पित करते हैं-पाप कर्मों से निवारित करते हैं, कल्याण कर्मों में नियोजित करते हैं, कल्याण-भावना से अनुकम्पित करते हैं, अश्रुतपूर्व उपदेश सुनाते हैं. श्रुत उपदेश को दृढ़ करते हैं, तथा सुगति का मार्ग प्रदर्शन करते हैं। बुद्ध प्रतिपादित उक्त गृहिधर्म में पाप कर्मों से निवृत्त होने का तथा कल्याणकारक कर्मों में प्रवृत्त होने का विधान किया गया है। अर्थात् ये नियम निवृत्ति तथा प्रवृत्ति दोनों का सन्तुलित विधान करते हैं । बुद्ध कहते हैं--उक्त चौदह प्रकार के पाप कर्मों से निवृत्त होने वाला तथा छः कल्याण कर्मों का अनुष्ठान करने वाला प्रार्यश्रावक दोनों लोकों का विजय करता है, वह इहलोक तथा परलोक दोनों की आराधना करता है तथा मर कर सुगति-- स्वर्ग लोक को प्राप्त होता है। बुद्ध का यह विधान उनके मध्यमा प्रतिपत् (मध्यम मार्ग) सिद्धान्त के अनुरूप ही है । ___ जैन परम्परा में विहित श्रावक धर्म का प्राधार निवृत्त्यात्मक अहिंसा है । बौद्ध परम्परा में श्रावकधर्म का प्राधार अलोभ, अद्वेष, एवं प्रमोह-ये तीन कुशलमूल हैं, जो विधिप्रधान हैं । अलोभ का अर्थ है त्याग, अद्वेष का अर्थ है मैत्री एवं अमोह का अर्थ है पारमार्थिक ज्ञान । इस प्राधार भूमिगत भेद को ध्यान में रखने पर इन दो धर्मों का मौलिक भेद स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है ।। कुशलमूलों की विविध प्रधानता बुद्ध. प्रतिपादित गृहस्थ धर्म के उक्त विवेचन से भी प्रतिफलित होती है । ३. मनु प्रतिपादित गृहस्थ धर्म : जैन एवं बौद्ध धर्म का आदर्श संन्यास है। मनु भी संन्यास को यथोचित् महत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy