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________________ 268 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1 है, वह अहिंसा के पूर्ण पालन में बाधक है या नहीं? इस प्रकार का जवाब गांधीजी सम्पूर्णफलत्याग के प्राधार पर देते हैं। यदि साध्य भी अहिंसा है और साधन भी अहिंसा तो अनिवार्य हिंसा साधन के कोटि में आकर अहिंसा ही बन जाती है। हिंसा से अहिंसा की सिद्धि गांधीजी स्वीकार नहीं करते । अनिवार्य हिंसा की सीमारेखा देश, काल और व्यक्ति के अनुसार बदलती है। विधि निषेध की सीमा निर्धारित करना सम्भव नहीं। उक्त प्रस्तावना में गांधीजी लिखते हैं-"गीता विधिनिषेष बतलाने वाली भी नहीं है। एक के लिए जो विहित होता है, वही दूसरे के लिए निषिद्ध हो सकता है, एक काल, या एक देश में जो विहित होता है, वह दूसरे काल में, दूसरे देश में निषिद्ध हो सकता है। निषिद्ध केवल फलासक्ति है, विहित है अनासक्ति ।" गांधीजी के जीवन-दर्शन का मूल आधार अहिंसा है इस बारे में वे जैनदर्शन से प्रभावित हैं। भगवान बुद्ध के मध्यम मार्ग को भी वे स्वीकार करते हैं। तथा मन एवं गीता प्रतिपादित निष्काम प्रवृत्ति की कल्पना भी उन्हें मान्य है। उनके जीवन का परम ध्येय आत्मदर्शन, अहिंसा द्वारा अहिंसा की सिद्धि है। सत्य ही उनका ईश्वर है (हरिजन, दिनांक ६-७-४०) । सत्य और अहिंसा आत्मदर्शन के उपाय हैं । ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ मानते हुए भी गांधीजी गृहस्थ जीवन को अत्यन्त हेय नहीं मानते। सम्भोग का विवेक करते हुए वे कहते हैं-"सन्तानोत्पत्ति के ही अर्थ किया हुआ संभोग ब्रह्मचर्य का विरोधी नहीं है, कामाग्नि तृप्ति के कारण किया गया संभोग त्याज्य है" (ब्रह्मचर्य, पहला भाग, पृ० ८५-८७)। मनु० (६.१०७) को अनुसरण करते हुए वे एक ही सन्तति को 'धर्मज' मानते हैं, यद्यपि वे पुत्र और पुत्री के बीच भेद नहीं करते (वही)। गांधीजी विवाहित को अवि. वाहित सा होने का उपदेश देते हैं। कामप्रेरित प्राकर्षण को वे स्वाभाविक नहीं मानते । स्त्री-पुरुष के बीच का सहज आकर्षण यह है जो भाई और बहिन, मां और बेटे बाप और बेटी के बीच होता है। संसार इसी स्वाभाविक आकर्षण पर टिका है (गांधीजी अनीति की राह पर,' पृ० ७०-१)। एक बार महात्मा गांधी से पूछा गया-"क्या प्राप विवाह के विरुद्ध हैं ?" उन्होंने उत्तर दिया-"मनुष्य जीवन का सार्थक्य मोक्ष है। हिन्दू के तौर पर मैं मानता हूँ कि मोक्ष का अर्थ जीवन-मरण की घट-माल से मुक्तिईश्वर साक्षात्कार। मोक्ष के लिए शरीर के बन्धन टूटने चाहिएँ। शरीर के बन्धन तोड़ने वाली हर एक वस्तु पथ्य और दूसरी अपथ्य है। विवाह बन्धन तोड़ने के बदले उसे उलटा अधिक जकड़ लेता है । ब्रह्मचर्य ही ऐसी वस्तु है जो कि मनुष्य के बन्धन मर्यादित कर ईश्वरापित जीवन बिताने में उसे शक्तिमान करता है । विवाह में तो सामान्य रूप से विषय-वासना की तृप्ति का ही हेतु रहा हुआ है। इसका परिणाम शुभ नहों। ब्रह्मचर्य के परिणाम सुन्दर हैं ।" विकार की सम्भावनामों के आधार पर गांधीजी ने विवाहित जीवन को हेय माना है । मोक्ष या प्रात्मसाक्षात्कार के अन्तिम प्रादर्श के साथ लोकसंग्राहक प्रवृत्तियों का मेल बैठाने के प्रयत्नों में ऐसे विरोध सर्वत्र हो जाते हैं, जिनका बौद्धिक समन्वय एक जटिल दार्शनिक प्रश्न है जिसके समाधान की कोशिश सभी दार्शनिक अपने अपने ढंग से करते आये हैं। कर्मफलत्याग को मध्यबिन्दु बनाकर ब्रह्मचर्य आदि चारों आश्रमों का समन्वय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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